Letter W- विश, विल, विन, वेल

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Letter W- विश, विल, विन, वेल

भगवान के मंदिर में एक बार एक भक्त पहुंचा और भगवान के आगे गुहार करने लगा- हे प्रभु! तुने मुझे धन क्यों नहीं दिया? औरों के पास पर्याप्त धन है, मैं धनहीन हूँ। मुझे अपने जीवन के गुजारे में कठिनाई होती है। तुने तन दिया, संतान दिया, सब कुछ दिया। धन क्यों नहीं दिया? वो अपनी प्रार्थना करके बाहर निकला और थोड़ी देर बाद एक सेठ भगवान के दरबार में गया। उसने कहा- हे प्रभु! तुने मुझे धन दिया, बुद्धि दी, शरीर दिया, पर एक कमी रख दी- कम से कम एक संतान तो देता। दुनिया में सब की संतान है, मेरे पास कोई संतान नहीं। तेरा इतना बड़ा सेवक आखिर मेरी ये आस कब पूरी होगी? मैं 24 घंटा दुखी रहता हूँ। प्रभु! मुझे संतान दे दे। वो निकला, तीसरा व्यक्ति गया। उसने कहा- प्रभु! मेरे पास धन भी है, संतान भी है, बुद्धि भी है, पर स्वास्थ्य नहीं है। नित्य प्रति बीमार रहता हूँ, अपने धन का भोग भी करने लायक नहीं हूँ। प्रभु! कैसे भी मुझे स्वस्थ कर दे। तीसरा निकल कर आया कि तभी एक चौथा अंधा भिखारी भगवान के चरणों में गया। अहोभाव से भर कर कहा- हे प्रभु! बड़ा आभारी हूँ तेरा कि कम से कम तूने मुझे इतनी सबल पैर दिए, जो तेरे दरबार में मत्था टेकने का सौभाग्य मिल जाता है। माना मेरी आंख नहीं है, पर पांव तो है, जो तुम को आता हूँ। मैं तुम्हें देख ना पाऊं, इसका मुझे कोई गम नहीं; तुम्हारी दृष्टि मुझ पर पड़ जाती है, इससे अपने आप को धन्य महसूस करता हूँ। मैं तुम्हारे दर्शन करूं ना करूं, ये मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं। प्रभु! तुम्हारी दृष्टि भर से मेरा कल्याण होता है, मैं धन्य हूँ।

भगवान का दरबार एक, पहुंचने वाले भक्त अलग-अलग, सबकी अपनी-अपनी मंशा और सबकी अपनी-अपनी भावना। पहले तीन फरियादी बन करके गए, सब ने भगवान के सामने शिकायतें की, कोई ना कोई मांग रखी और चौथा है, जो अहोभाव से भर करके पहुंचा। जिसके अंदर में कोई चाह नहीं, बस अपने आप को कृतार्थ महसूस कर रहा है। अहोभाव से भरा है। प्रसन्नता से भरकर के जीवन जी रहा है। बंधुओं! अपने भीतर झांककर देखो, मेरा स्थान कहां है? मैं कहां हूँ? मैं प्रसन्नता से जी रहा हूँ या शिकायतों में जी रहा हूँ? जीवन में कमियों का अनुभव कर रहा हूँ या तृप्ति के साथ जी रहा हूँ? ये विचार करने की बात है।
आज बात है W की और W में सबसे पहली बात है- विश (Wish).

विश यानि चाह, इच्छा। आप अपने मन में देखो, आपके मन में कोई विश है? है, तो कैसी है? एक चाह है, जो हमारे जीवन की दाह बढ़ाती है और एक चाह है, जो जीवन की राह बनाती है। चाह- चाह है; एक में दाह है, एक में राह। आप समझ रहे हैं बात को? एक चाह है, जो दाह, आकुलता उत्पन्न कर रही है, चिंता में डाल रही है, असंतुष्टि प्रकट कर रही है और एक चाह है, जो हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रही है। आपके अंदर कौन-सी चाह है? अगर संसार की चाह है, तो तय मानना दाह होगी और कल्याण की चाह है, तो राह मिलेगी। किसकी चाह है, अर्थ की या परमार्थ की? किसको चाहते हो? क्या बनना चाहते हो, Wealthy या Worthy? क्या बनना चाहते हो?- हमारे हाथ में है। एक चाह है, जो तुम्हे पतित से पावन बना देगी, नर से नारायण बना देगी, पामर से परमेश्वर बना देगी, कंकर से शंकर बना देगी और एक चाह है, जिसके कारण तुम संसार के मकड़जाल में उलझ करके राह जाते हो। किसे चाहते हो? तुम्हारी चाहत क्या है? पूछो, अगर मैं आप सब से पूछूं कि भैया! बताओ, आपको क्या चाहिए? तो क्या बताओगे? हाँ? क्या चाहिए? हाँ? सब कुछ। क्या है? मान लो, अगर अभी थोड़ी देर के लिए भगवान मुझे अधिकृत करके आप सबके बीच भेजें और कहें कि सबको बोल दो- कोई एक चीज मांग लें। क्या चाहिए? क्या मांगोगे? हाँ? सब अपनी-अपनी बातें हैं। अरे! तुम कुछ-कुछ-कुछ मांगोगे, भगवान ने कहा कि कुछ चाहिए, तो मांग लो; सीधे भगवान को क्यों नहीं मांग लेते? कमजोर है मन? तुच्छ को चाहते हो; जो सब कुछ है उसकी तरफ तुम्हारी दृष्टि ही नही है। पाना सब कुछ चाहते हो, लेकिन सर्वस्व की उपेक्षा करते हो। कैसे काम होगा? भगवान ने कहा कि जो चाहिए, सो लो; तो हमें कुछ नहीं चाहिए, आप ही आ जाओ। भगवान को चाहोगे, सब कुछ मिल जाएगा और भगवान को भुला दोगे, सब कुछ भूल जाएगा।

महाभारत के उस प्रसंग को याद कीजिए, जब युद्ध अपरिहार्य हो गया। श्री कृष्ण के द्वारा अनेक उपाय करने के बाद भी जब युद्ध को टालना असंभव हो गया, उन्होंने घोषणा कर दी कि ठीक है- अब युद्ध होगा, तो युद्ध होगा। मैं किसके पक्ष में लड़ूंगा, इसके विषय में फैसला सुबह होगा। पहुंच गए, युधिष्ठिर भी और दुर्योधन भी। दुर्योधन श्री कृष्ण के सिर के पास आकर के खड़ा हो गया। श्री कृष्ण लेटे हुए थे। युधिष्ठिर पांव के पास आ के खड़ा हो गया। दुर्योधन पहले आया, युधिष्ठिर थोड़ी देर बाद आया। श्री कृष्ण की आंखें खुली, स्वाभाविक है- दृष्टि सामने वाले पर पड़ी। युधिष्ठिर! आ गए! दुर्योधन ने कहा- हम भी आए, हम पहले आए। ठीक है, पहले तुम आए होंगे, तुम पर दृष्टि मेरी बाद में पड़ी। युधिष्ठिर! पहले मैंने तुमको देखा है। मांगो, तुम क्या मांगते हो? मैंने तय किया है- एक ओर मैं अकेला, वह भी निरस्त्र, निहत्था और दूसरी ओर मेरी ग्यारह अक्षोहनी सेना। तुम क्या चाहते हो? what you wish? एक ओर अकेला मैं, वो भी निहत्था और दूसरी तरफ मेरी ग्यारह अक्षोहनी सेना। दुर्योधन घबराया, कहीं ग्यारह अक्षोहनि सेना ना मांग ले, ग्यारह अक्षोहनि सेना ना मांग ले। पर युधिष्ठिर तो युधिष्ठिर थे, उन्होंने कहा- प्रभु! हमे केवल आपकी आवश्यकता है। निहत्थे ही सही, हमे केवल आप चाहिएं, और कुछ नहीं चाहिए। हम केवल आप को चाहते हैं। दुर्योधन ने तुरंत ताली बजाकर अपना दावा ठोका कि फिर ग्यारह अक्षोहनी सेना मेरी, ग्यारह अक्षोहनी सेना मेरी। श्री कृष्ण ने कहा- तथास्तु! उसके बाद महाभारत हुआ। महाभारत का परिणाम जो हुआ, सबके सामने है पर मैं कहता हूँ- वो परिणाम तो बाद में हुआ, घोषित बाद में हुआ, तय तो उसी दिन हो गया था, जिस दिन चुनाव हुआ था।

परिणाम बाद में घोषित हुआ, सबने देख लिया- पांडवों की जीत हुई, कौरवों की हार। लेकिन परिणाम तो उसी पल घटित हो गया था, जिस पल इसका चुनाव हुआ था। परिणाम तो तभी घोषित हो गया, सुनिश्चित हो गया, जिस पल चुनाव हुआ। बंधुओं! ये घटना कभी घटी, पर मुझे इसमें एक बहुत बड़ा रूपक दिखाई पड़ता है।

आज भी हमारे सामने वही स्थितियां हैं। वो महाभारत तो 18 दिन में पूरा हो गया, लेकिन एक महाभारत हम सब के भीतर छिड़ा हुआ है। उस महाभारत को पहचानें। कोरव और पांडव हमारी दो प्रकार की वृत्तियां हैं, जिसका प्रतिनिधित्व दुर्योधन और युधिष्ठिर कर रहे हैं और श्री कृष्ण हैं हमारे अंदर का परमात्मा, हमारा विवेक। हम किसको चुनते हैं? ये ग्यारह अक्षोहनी सेना क्या है? पांच इन्द्रियां और पांच उनके विषय, जिसे ज्ञान इन्द्रिय और कर्म इन्द्रिय के रूप में जाना जाता है और एक मन। एक तरफ ये है और एक तरफ श्री कृष्ण रूप परमात्मा हैं। जीवन के इस महाभारत में तुम किसको चुनना चाहते हो? अगर ये तुमने इन्द्रिय और उसके विषय को चुना, यानि अर्थ को चुना, तुम जीवन के महाभारत में हारे बिना नहीं रहोगे और यदि तुमने परमात्म को चाहा, परमार्थ को चाहा, तुम्हारी जीत सुनिश्चित है। तुम किसको चाहते हो? तुम किसको चाहते हो? अर्थ को, या परमार्थ को? अर्थ को चुनोगे, अनर्थ के पात्र बनोगे और परमार्थ को चुनोगे, पूजे जाओगे। किसे चुनना चाहते हो?- ये तय करना है। मेरी चाह क्या? मेरी पसंद क्या?
आज दुनिया में ज्यादातर लोग वैल्थ चाहते हैं, पैसा चाहते हैं। ठीक है, पैसा जीवन की एक आवश्यकता है, चाहिए। बिना अर्थ के तुम्हारे जीवन का गुजारा नहीं होता, स्वीकार है। जीवन के गुजारे के लिए अर्थ का उपार्जन करना सही है, पर पूरा जीवन केवल अर्थोपार्जन में गुजार देना, कितना सही है? विचारना ये है कि जीवन के गुजारे के लिए तुम अर्थोपार्जन कर रहे हो, या केवल आर्थोपार्जन में जीवन गुजार रहे हो।

कल एक सज्जन ने मेरे पास एक मेसेज भिजवाया। उसमें एक बहुत ही चिंतनपरक बात सामने आयी। 1922 में शिकागो के एक होटल में उस समय दुनिया के 9 बड़े धनपति इकट्ठे हुए। 9 जिसमें स्टील इंडस्ट्रीज के जो भारत के largest स्टील इंडस्ट्री थे, उनके प्रेसिडेंट थे और अन्य-अन्य बड़े-बड़े क्षेत्रों के अपने-अपने मुखिया थे। नौ और उनकी कुल संपत्ति अमेरिका की संपत्ति से ज्यादा थी। 1922 में इतने बड़े धनपति इकट्ठे हुए और पच्चीस बरस बाद, यानी 1947 में जो हाल आया, वो सोचनीय है। उन नौ में से चार दिवालिया हुए, तीन ने सुसाइड किया, एक जेल में मरा और एक धनाभाव में मरा। ये नौ की कहानी है। सोचनीय बात है। क्या करते हैं आप? कितने धन की चाह? किसके लिए धन की चाह? ये बात सही है कि नाव को चलाने के लिए पानी चाहिए। पानी का प्रवाह हो, तो नाव चलती है। लेकिन, भाई! पानी का प्रवाह नाव के नीचे है, तभी तक ठीक। यदि प्रवाह नाव के भीतर हो जाए, तो? तुम देखो- तुम्हारी नाव पानी में है या पानी नाव में है? धन को तुमने अपने जीवन के निर्वाह का साधन मानकर स्वीकारा है या धन ही तुम्हारे जीवन का साध्य बन गया है?- ये विचारणीय है। क्या चाहते हैं? धन उस मनुष्य के लिए साधन बनता है, जो अपने जीवन धन को पहचानता है। धन तो यहां है, यहां आया है, यहीं छूट जाने वाला है।

धन से बड़ा जीवन है। संपन्नता से बड़ी प्रसन्नता है। समृद्धि से बड़ी संतुष्टि है। अर्थ से बड़ा परमार्थ है। ये समझ होनी चाहिए।
तो मेरे लिए जितनी जरूरी संपन्नता है, उससे ज्यादा जरूरी प्रसन्नता है; जितनी आवश्यकता समृद्धि की है, उससे ज्यादा संतुष्टि की; जितना महत्वपूर्ण अर्थ है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण परमार्थ है। ये मानस में बात बैठनी चाहिए। और यदि ये बात बैठ गई, तो जीवन बदल गया। लेकिन आप लोग क्या करते हो? मूल को भूल जाते हो और जिसकी कोई ज्यादा जरूरत नहीं, उसी में उलझ जाते हो।

एक आदमी एक दर्जी के यहां गया, पैंट सिलवाने। तो पैंट सिलवाने के बाद नाप-वाप दे दिया, कपड़ा दे दिया। तो उसके बाद उसने कहा कि भैया! देखो, हम पैंट तो सिलवाएंगे, पर हमें एक थैला भी चाहिए। पैंट के साथ एक थैला भी चाहिए। उसने कहा- भैया! तुम्हारा कपड़ा इतना ही है, इसमें थैला कैसे बनेगा? बोले- नहीं-नहीं, तुम दर्जी लोग बहुत चीट करते हो, चीटिंग करते हो। हमारे मित्र ने बताया, उसने पैंट सिलवाया था, तो उसको दर्जी ने थैला भी सिल के दिया। उसने कहा- भाई! उसका कपड़ा ज्यादा होगा, कपड़ा एक्स्ट्रा होगा, उससे थैला बना दिया। नहीं-नहीं, हम तुम्हारी बात पर भरोसा नहीं करते। तुम लोग कपड़ा काटते हो और सब कुछ कांट देते हो। हमको तो थैला चाहिए। नहीं बनेगा। बोला- भैया! पहले थैला बनाना, फिर पैंट बनाना। अब क्या करें? दर्जी ने समझाने की कोशिश की, पर सामने वाला समझने को राज़ी नहीं। कहा- ठीक है, आप जैसा कहते हो, कर देता हूँ। उसने पैंट सिला, थैला बनाया। आया, तो सबसे पहले थैला दे दिया। थैला दिया, थैला देखकर प्रसन्न हुआ। फिर पैंट; जब पैंट देखा, तो उसमें पांव ही नही घुसे। पैंट देखा, तो पैंट में पांव ही नही घुसे। बोले- ये क्या बना दिया? बोले- भैया! अगर थैला जरूरी हो, तो पैंट ऐसा ही बनेगा। मैंने तुम्हे पहले कहा था कि कपड़ा उतना ही है, इसमें पैंट बनेगा, थैला नहीं बनेगा। पर तुम्हें पैंट से ज्यादा प्यारा थैला था, तो रखो, ये किसी काम का नहीं।
बस मैं आपसे केवल इतना ही कहता हूँ- देखो, अपने मन को, टटोलो, तुम्हारे मन में पैंट की चाह है या थैले की? तुम्हारे भीतर का परमार्थ पैंट है और ये पदार्थ थैला है। तुम थैले में उलझ जाते हो, पैंट को भूल जाते हो। पैंट को मत भूलो, थैले को भूल जाओ। पर उल्टा काम; जो गैर-जरूरी है, उसमें उलझ कर रह जाते हैं और जो जरूरी है, उसको भुला देते हैं। तो विश! क्या चाहते हैं? what you wish? ये सवाल अपने मन से पूछो। और फिर केवल चाहने से तो काम नहीं होगा। विश के बाद है- विल (Will).

विल यानि? इच्छा और विल पावर- इच्छाशक्ति, संकल्पशक्ति। केवल चाहने से तो कुछ नहीं मिलता, चाहने से तो मौत भी नहीं मिलती। मुझे चाहिए क्या? मोक्ष। अभी बोल रहे थे- दीक्षा। केवल चाहने से नहीं मिलेगा, इच्छाशक्ति जगाइए। जिसे तुम पाना चाहते हो, उसके प्रति तुम्हारी दृढ़ इच्छा शक्ति होनी चाहिए, संकल्प शक्ति होनी चाहिए, विल पावर होनी चाहिए। अपने अंदर की विल जगाओ। इच्छाशक्ति जगाइए। मनुष्य के मन की संकल्पशक्ति असंभव को भी संभव बना देती है। तुम अगर अपना कल्याण चाहते हो, तो तुम्हारे अंदर वैसी इच्छा शक्ति होनी चाहिये। हमारे गुरुदेव कहते हैं कि पावर नही विल पावर बढ़ाओ। समझ गए? विल पावर बढ़ाओ। जिसका विल पावर होता है, वो कमजोर तन के बल पर भी आगे बढ़ जाता है और जिसका विल पावर कमजोर होता है वह पहलवान होने पर भी पछाड़ खा जाता है। विल का मतलब क्या है- जिसने illness को जीत लिया है। ‘Win the illness’- अपने मन की बीमारी को दूर करो, मन की दुर्बलताओं को दूर करो, मन की कमजोरियों को दूर कर लो, जीत लो! विल हो जाएगा, विल पावर बढ़ जाएगा। जगाइये! अपनी विल पावर को जनरेट कीजिये। वो अगर जग गया, तो फिर संसार मे कुछ भी असंभव नहीं है। दुनिया मे जितनों ने अपना उत्थान किया है, किसके बदौलत किया है? हाँ? विल पावर के बल पर। महापुरुषों के जीवन चरित्र को पलट करके देखो। जीवन मे बड़े-बड़े जोखिम उठाए, परिषह सहे, उपसर्ग सहे, कष्टों का सामना किया, मुश्किलों ओर मुसीबतों को फेस किया और जंग जीते। किसके बदौलत? किसके बदौलत? विल पावर के बदौलत।

सुकुमाल मुनि को याद करो। एक समय था, जब सरसों का दाना चुभता था। वो सुकुमाल, जिसे सरसों का दाना चुभता था, रत्न कम्बल भी जिसे चुभन पैदा करते थे। वही सुकुमाल, जिन्हें तीन दिन तक शियारनी खाती रही, उसके दंश नहीं चुभे। किसके कारण? क्या हो गया? विल पावर जग गया।
जीवन में जब भी कभी कुछ हताशा आए, कोई समस्या आए, परेशानी आए, तो अपने विल पावर को जगाओ। और विल पावर जगेगी कब? जब अपनी सारी नकारात्मकताओं को हम दूर करेंगे। नकारात्मकताओं को दूर करेंगे, जीवन में बदलाव आएगा। लोगों के मन के अंदर की जितनी भी नेगेटिव इमोशन्स हैं, वो हमें अंदर से कमजोर बनाते हैं। उन दुर्बलताओं को दूर करो, आगे बढ़ो, उत्साहित होओ। और उसके लिए हमेशा ऐसे लोगों का आलंबन लो, ऐसे लोगों के संपर्क में रहो, जिनके पास जाने के बाद आपका विल पावर स्ट्रॉन्ग होता हो, जो आपको एन्करिज (encourage) करते हों, उनके कॉन्टैक्ट में रहिए। निरंतर आगे बढ़ते रहिए, देखिये जीवन में कैसी धारा बदलती है। सब कुछ परिवर्तन हो जाएगा, अगर वैसी स्थिति हमारे अंदर जागृत हो तो। कई लोग बोलते हैं- महाराज जी! हम कई बार चाहते हैं, पर कर नहीं पाते। मन में चाहत आती है, पर कर नहीं पाते।

एक सज्जन ने एक दफा कहा- महाराज जी! मैंने पांच बार तम्बाकू छोड़ दिया। गुटका खाने के आदि थे। पांच बार छोड़ दिया। महाराज! छूटती नहीं। तो हमने कहा- अब छठवें बार तो मैं छुडाऊंगा नहीं। पांच बार तम्बाकू छोड़ दिया और छूटती नहीं। और बताऊं- आदमी भी ऐसा-वैसा नहीं था, रोज़ स्वाध्याय करता था। दो-दो घंटे स्वाध्याय करता था और करता नहीं, कराता भी था। उसने आकर के मुझसे कहा, ईमानदारी से कहा कि महाराज! पांच बार छोड दिया, छूटती नहीं। हमने कहा- देखो भाई! अगर बीमार मन के साथ छोड़ोगे, तो सारी ज़िन्दगी में नहीं छूटेगी और स्वस्थ मन से छोड़ोगे, पल में छूट जाएगी। अंदर से इच्छा शक्ति को जगाओ। मुझे छोड़ना है, तो छोड़ना है- दृढ़ संकल्प लो। और जो भी स्थिति आएगी, उसका हम सामना करेंगे, कुछ होगा। महाराज! कैसे छोड़ें? हमने कहा- कुछ मत करो, तुम आठ दिन के लिए संकल्प लो कि मैं बिल्कुल उसको हाथ नहीं लगाऊंगा। महाराज! रह नहीं पाता। बोले- क्या होगा? मरोगे, इसके अलावा और क्या होगा? मरोगे, इसके अलावा और क्या होगा? नहीं, महाराज! मरने की बात तो नहीं, पर बेचैनी होती है। हमने कहा- तय कर लो कि गुरु को वचन देने के बाद, चाहे प्राण क्यों ना निकलें, मैं उससे डगमगाऊंगा नहीं, मैं उसे सहन करूंगा। तुम्हे दो-तीन दिन, चार दिन की परेशानी होगी, ज़िन्दगी भर का आराम मिलेगा। मैंने उसके अंदर की इच्छा शक्ति को जागृत किया। उसने मेरी बात को मानकर के स्वीकार लिया और खुदने कहा- महाराज! अब चाहे जो हो, मैं नहीं खाऊंगा-नहीं खाऊंगा-नहीं खाऊंगा। हम बोले- कुछ मत कर, आठ दिन मेरे पास रह। मन डगमगाएगा, मेरे पास रहना। आप सुनकर के ताज्जुब करोगे, उस व्यक्ति ने छोड़ा। तीन दिन तो एकदम सुस्त सा पड़ा रहा, एकदम पड़ा रहा। मैंने एक-आध बार छेड़ने के लिए पूछा भी- क्यों, लेना है क्या? नहीं, महाराज। एकदम निढाल, जैसे शरीर में जान नहीं है। होता है, जिनको इस तरह का एडिक्शन होता है, उनके साथ ऐसा होता है। एकदम निढाल सा हो गया। मैंने पूछा- कुछ लेना है क्या? बोला- नहीं महाराज! नहीं लेना है। लेकिन चोथे-पांचवें दिन से कहने लगा- महाराज! अच्छा लगने लगा है, भूख भी अब थोडी बढ़ने लगी है। अब ठीक है, हम कंफर्टेबल फील कर रहे हैं अपने आपको और आठ दिन बाद खुद श्रीफल लेकर आया और कहा- महाराज! आज से आजीवन त्याग। और उस घटना को लगभग आठ से दस बरस हो गए, अभी तक वो चल रहा है। जो व्यक्ति कभी छोड़ नहीं पाता था, इच्छा शक्ति प्रकट होते ही छूट गई। तुम्हारे जीवन की कोई भी दुर्बलता है, कोई भी कमजोरी है, कोई भी ऐसी समस्या है जिससे बाहर आना चाहते हो, तुम्हारी इच्छाशक्ति भर होनी चाहिए। इच्छाशक्ति प्रबल हो, तो असंभव भी संभव बन जाती है और इच्छा शक्ति के अभाव में- जो सहज संभव है, वो भी असंभव हो जाता है। तो मन में ठानिये। नीति कहती है-
सर्वम संकल्पवसात भवतिर, लघुर भवतीर वामः।

संसार में जो कुछ भी होता है, वो मनुष्य के मन के संकल्प के बल पर होता है। संकल्प मनुष्य का उत्थान करता है और संकल्प से ही मनुष्य का पतन होता है। तुम्हें उच्चाईयों पर भी चढ़ाता है- तुम्हारे मन का संकल्प और तुम्हें रसातल में भी पहुंचाता है- तुम्हारे मन का संकल्प। अगर तुम्हारी विल पावर स्ट्रॉन्ग हो और तुमने डायरेक्शन ठीक पकड़ा हो, तो निश्चित: तुम अपने जीवन को ऊंचा उठाने में समर्थ हो सकोगे। अपनी विल पावर को जगाइए। एक लक्ष्य रखना चाहिए।

देखिए विल पावर का कमाल। शिखर जी तो आप लोग गए ही होंगे। ऐसा कोई व्यक्ति है इस सभा में, जो जीवन में अभी तक सम्मेद शिखर जी नहीं गया? एक माता जी, दो हाथ उठ रहे हैं, लगभग तीन उठे, 5-7 हैं। नहीं गए, जल्दी जाने का मनोभाव जगा लो। एक बार चले जाओगे, तो ज़िन्दगी तर जाएगी, सुनिश्चित हो जाएगी। पर ज्यादातर लोग गए हैं। 4–5 हाथ उठे, जो नहीं गए। अपना भाग्य जगाइए और एक बार दर्शन कीजिए। पर जो लोग शिखर जी की वंदना करके आए हैं, मैं उनसे पूछता हूँ- शिखर जी की वंदना करते समय नौ किलोमीटर की चढ़ाई, नौ किलोमीटर की वंदना और नौ किलोमीटर उतरना। कुल सत्ताईस किलोमीटर की ये यात्रा किसके बल पर करते हो? हाँ? समझ में आ गया? किसके बल पर करते हो? विल पावर के बल पर। यहां से तुमसे कहा जाए कि भैया! सेक्टर चार के मंदिर चलो, तो कहोगे- बिना गाड़ी के संभव नहीं है। जो एक किलोमीटर पैदल चलने में अपने आपको असमर्थ महसूस करता है, वो 27 किलोमीटर की ये थकान भरी यात्रा, मुस्कुराते हुए कैसे कर लेता है? बात समझ में आ रही है? इसका मतलब? इसका मतलब कुल यही है कि पावर तो तुम्हारे पास है, विल पावर नहीं है। पहाड़ पर चढने की ताकत है, अशक्त होते, तो नहीं चढ़ पाते। तुम्हारे पास तुम्हारे शरीर में शक्ति थी, तब तुम चढ़े लेकिन तुम्हारी शक्ति दबी हुई थी विल पावर के अभाव में। विल पावर जग गई, नहीं मुझे वंदना करना है, चढ़ गए।

विल पावर का कमाल बताता हूँ। मैं सम्मेद शिखरजी की वंदना कर रहा था और रात्रि भर पारसनाथ टोंक में मैंने साधना की। मैं जब वहां था, ज्यादातर ऐसा ही करता था- दोपहर में चला जाता था, रात भर टोंक पर साधना करता और सुबह वंदना करते हुए वापस नीचे आ जाता। तो पारसनाथ टोंक से वंदना करते हुए मैं चंद्रप्रभु भगवान की टोंक पर था, ग्यारह करीब बज गए थे। सुबह होने के बाद वंदना करता और बड़े आराम से वंदना करता। लगभग ग्यारह बज गए, चंद्रप्रभु टोंक में उस समय शांति थी और मैं वहां थोड़ा ध्यान आदि करके उतर रहा था। जब मैं वहां से उतरने को हुआ, एक वृद्ध दम्पत्ति जिनकी उम्र 80–82 वर्ष की और उनके साथ उनकी एक बहु थी, जो 65 साल की थी, तीन लोग मिले। ग्यारह बजे चंद्रप्रभु टोंक में आना, माने बहुत लेट हो जाएगा। मैंने पूछा- क्या बात है? लेट चढ़े थे क्या? बोले- टाइम पे चढ़े थे। बोले- डोली वाले नहीं हैं? बोले- नहीं, महाराज! पैदल वंदना करने का भाव लेकर आए थे, पैदल ही करेंगे। ध्यान से सुनो! पैदल वंदना करने का भाव लेकर आए थे। महाराज! आशीर्वाद दो, पैदल ही वंदना करेंगे। नौ बजे तक उतर जाएंगे। चढ़े तो हम टाइम पर थे। महाराज! आशीर्वाद दो, धीरे-धीरे चले जाएंगे। तीन बजे सुबह के चले, ग्यारह बज रहे हैं, अभी चंद्रप्रभु टोंक पर आए हैं और कह क्या रहे हैं?- पैदल का भाव लेकर आए हैं महाराज, अनेक वंदनाएं की, सोचा आखिरी-आखिरी एक वंदना और कर लूं। और पैदल कर लेंगे, 8–9 बजे तक उतर जाएंगे। उन्होंने वंदना की। क्योंकि वो समय ठीक समय नहीं रहता, मैने वहां के गार्ड वगैरह को समझाया कि भाई! इनका ध्यान रखना। और वो लोग रात में नौ बजे उतरे और सकुशल उतरे, पैदल उतरे। ये है विल पावर। शरीर जर्जर, दुबले-पतले, तो क्या है? पावर बड़ा कि विल पावर? समझ में आई बात? तो अपने भीतर के विल पावर को जगाइए, तो आप विन हो जाओगे। क्या होगा?
विश के बाद विल और विल के बाद विन (Win). विन यानि जीत, विजय, तुम्हारी जय-जयकार, जीत जाओगे। अपने आप को जीतो। मैंने कहा- विल का मतलब- इलनेस को विन कर लो। समझ गए? विन हो गया। विन क्या है? जीतो। किसको? इलनेस को और नेगेटिव थॉट (thought) को। win- बुराइयों को और नकारात्मकताओं को जीतो, तुम्हारी जय है, जय-जयकार है। फिर तुम्हारी कहीं हार नहीं। तो बंधुओं! विश, विल, वेल।
वेल (Well) यानि? वेल-वेल, वेलकम करते हो ना! वेल- अच्छा, बढ़िया, चंगा, भला, आनंदमय। अगर तुम्हारे अंदर सही विश हो और विल हो, तो तुम्हारा वेल है ही। फिर तुम्हारे जीवन का भला ही भला है, कहीं कोई गड़बड़ी नहीं। आप लोग क्या चाहते हैं? सब कुछ अच्छा हो। चाहते हो? सब चाहते हैं- सब कुछ अच्छा हो-अच्छा हो-अच्छा हो। ठीक है, भैया! अच्छा हो ये तो सब चाहते हैं। मैं अच्छा करूं, ऐसा कौन चाहता है? बोलो! मेरे लिए सब अच्छा हो, ये सब चाहते हैं। मैं अच्छा करूं, ऐसा कितने चाहते हैं? बोलो। चाहते हो- अच्छा करूं? कदाचित, मैं अच्छा करूं, ये भी चाहते होंगे। पर अच्छा बनूं, ये कितना चाहते हो? अच्छा मिले- ये चाहते हैं, अच्छा करूं- ये चाहते हैं, अच्छा बनूं- ये कौन चाहता है? अच्छा बनने की चाहत जगाइए। और वो अच्छा तब बनेंगे, जब आपके अंदर सही विश होगी और उसके अनुरूप विल, प्रबल चाह, प्रबल उत्कंठा। कल्याण चाहो तो उसकी तड़प होनी चाहिए।

शिष्य गुरू चरणों में वर्षों से साधनारत था। एक दिन उसने अपने मन की व्यथा प्रकट करते हुए कहा कि गुरुदेव! अपने कहा था- मैं तुझे परमात्मा का साक्षात्कार कराऊंगा। एक अरसा बीत गया आपके चरणों में साधनारत रहते, पर परमात्मा का साक्षात्कार तो बहुत दूर, आभास तक नहीं हुआ। क्या आपकी शरण में आने के बाद भी मुझे आपकी कृपा के लाभ से वंचित रहना पड़ेगा? मेरी मनोकामना कब पुरी होगी? शिष्य की प्रार्थना सुनकर गुरु मुस्कुराए और उन्होंने कहा कि वत्स! तेरे साथ विलंब हुआ। चल, आज तुझे परमात्म साक्षात्कार का सूत्र बताता हूँ। पास में नदी बहती थी। गुरु-शिष्य दोनों कमर तक पानी में उतरे, नदी में स्नान करने लगे। गुरु-शिष्य साथ-साथ स्नान कर रहे थे। अचानक, गुरु ने झटके से शिष्य की गर्दन पकड़ी और पानी में डूबो दिया। गुरु वृद्ध थे, शिष्य जवान था। जैसे ही शिष्य की गर्दन पानी में दबाई, शिष्य सकबका गया, पुरी ताकत से प्रतिकार करके वापस खड़ा हुआ। जब वापस खड़ा हुआ, तो गुरु ने पूछा कि तुने आज तक मेरी किसी बात का प्रतिवाद नहीं किया। तुने आज तक मेरी किसी बात का प्रतिवाद नहीं किया, पर आज तुने ये क्या किया? गुरुदेव! प्रतिवाद नहीं करता, तो मरता क्या? वहां तो सांस लेना मुश्किल हो रहा था। अगर मैं ये प्रतिवाद नहीं करता, तो वहीं मर जाता। फिर परमात्मा का दर्शन कैसे करता? शिष्य की बात सुनकर गुरु मुस्कुराए और उसे समझाते हुए कहे- वत्स! यही है तेरी साधना का रहस्य। जैसे श्वास लेने के अभाव में तुझे घुटन का अनुभव हुआ, उसी प्रकार- जिस दिन तुझे परमात्मा के अभाव में घुटन होने लगेगी, उसी क्षण परमात्मा का साक्षात्कार कर लेगा। परमात्मा के अभाव में घुटन। सांस के अभाव मे घुटन तुम्हें होती है, परमात्मा के अभाव में घुटन? आप लोग पूजन में रोज़ बोलते हो-
तुम बिन मैं व्याकुल भयो, जैसे जल बिन मीन।
जनम जरा मोरी हरो, करो मोह स्वाधीन।

आजतक भगवान आपकी जन्मजरा को नहीं हर पाए। भगवान कहते हैं- हम हरेंगे क्यों? झूठी प्रार्थना का फल झूठा। कहते हो- तुम बिन मैं व्याकुल भयो और यहां पांच मिनट का विलंब होने लगे, घड़ी देखना शुरू कर देते हैं। मैं व्याकुल भयो, तुम बिन मैं व्याकुल भयो। क्या है? हमारी प्रबल उत्कंठा जैसी होनी चाहिए, वह नहीं है। इसलिए हमारी सलामती नहीं है, विलनेस नहीं है। विल हो, सलामती हो, जीवन भला चंगा बनाएं। कब? जब सही विश हो, सही विल हो, तो वेल होगा ही होगा। और वेल हो गया, तो फिर कुछ करने की जरूरत नहीं है, यही वे (way) है। क्या है? मार्ग है, यही मार्ग है और कोई मार्ग नहीं। मन में चाह हो और चाह के प्रति उत्कंठा जगे। हम उसके लिए तत्पर होकर के जुट जाएं पूरी त्वरा से, पूरी ताकत से, तो हमारा कल्याण होगा और यही एक मात्र कल्याण का मार्ग है। आगे बढ़ने की कोशिश कीजिए। अपने आप को आगे बढ़ाइए। अपने जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश कीजिए। वेल-वेल कब होगा? जब हम अपने प्रति जागेंगे, वेक (wake) होंगे। जागें! समझ गए? अपने आप को इम्प्रूव (improve) करना शुरू करेंगे और जो भी मिलेगा, उसको लाइक करेंगे; जैसा मिलेगा, उसे लव करेंगे- वेल बना रहेगा, कभी कुछ गडबड नहीं होगा।

जागरूकता के साथ, जो मिले, अपने जीवन को इम्प्रूव करना शुरू करो। जो मिले, उसे लव करो, लाइक करो, जीवन धन्य होगा। तो हमारे जीवन में ऐसी धन्यता आए, हमारे जीवन में ऐसी दिव्यता आए, हम अपने जीवन को अपने आप में एक ऐसा रूप दें कि लोग देख करके कुछ पल के लिए विष्मित हो उठें। कुछ पल के लिए विष्मित हो उठें। लोग विष्मित हो उठें- ये तो बहुत बाद की बात है, तुम खुद भी अपने आप पर विस्मय कर बैठो।
हम अनेक ऐसे लोगों को जानते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में रूपांतरण घटित किया है और वे खुद कहते हैं कि कभी मैं अपने पुराने इतिहास को पलट करके देखता हूँ, तो एक बार तो मुझे खुद आश्चर्य होता है- क्या ऐसा व्यक्ति भी ऐसा बन सकता है? अंजन चोर हमारे सामने है- एक रूप और दूसरा रूप निरंजन बनने का। अगर दोनों को हम देखें तो पूर्व-पश्चिम और पूर्व का अंत। लेकिन हाँ, मनुष्य अपना लक्ष्य बदलता है, उसके प्रति समर्पित होता है, तो असंभव भी संभव बन जाता है। हमारे अंदर भी वही सब कुछ होना चाहिए, तब हमारा जीवन आगे बढ़ेगा। हम अपने जीवन को संभालें, जीवन को संभालें, अपनी भवितव्यता को अच्छी बनाएं, जिससे हमारा जीवन सुखी हो। इसी शुभ भाव के साथ आज इतना ही कहते हुए विराम लूंगा।

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