क्रोध- क्षमा का शत्रु

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क्रोध:

-सहन करने में समाधान है, जवाब देने में संघर्ष।

-एक गुणवान मनुष्य जिसे बिना कारण ही क्रोध उत्पन्न हुआ करता है उसका कोई भी सम्मान नहीं करता है।

-क्रोध ! व्रत, तप, नियम और उपवास के द्वारा संचित किये हुए पुण्य को इस प्रकार से क्षणभर में नष्ट कर देता है जिस प्रकार से कि अग्नि क्षणभर में ईंधन को भस्म कर देती है।

-जिस प्रकार मद्य पीने से मनुष्य के विचार विवेक से रहित हो जाते हैं, उसी प्रकार क्रोध के वशीभूत होने पर भी उसके विचार; कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से रहित हो जाते हैं।

-जिस प्रकार मद्य को पीकर मनुष्य खोटे मार्ग में गमन करता हुआ दुख सहता है। उसी प्रकार क्रोध के वशी हुआ मनुष्य भी खोटे मार्ग में (जीवघातादि, दूसरो को डराने में) प्रवृत्त होता हुआ अनेक प्रकार के दुःख सहता है।

-मनुष्य भले ही महीने महीने उपवास करने में तत्पर रहे, सत्य बोले, ध्यान करे, बाहर वन में निवास करे, ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करे तथा निरन्तर भिक्षाभोजन में लीन रहे; किन्तु यदि वह क्रोध करता है तो उसका वह सब उपर्युक्त आचरण व्यर्थ हो जाता है।

-दोष के होने पर यदि कोई शाप देता है, अपशब्द बोलता है या निन्दा आदि करता है – तो वह सत्य बोलता है, ऐसा -विचार कर विवेकी जीव को उसे सहन करना चाहिये। और यदि दोषों के न होने पर भी कोई शाप देता है तो वह असत्य बोलता है, ऐसा विचार करके उसको सहन करना चाहिये।

-क्रोध एक ऐसा भयानक शत्रु है जो कि सबसे ज्यादा अहित करता है क्योंकि संसार में क्रोध बैरभाव को बढ़ाता है, मित्रता को नष्ट करता है, शरीर की आकृति को विकृत करता है, बुद्धि को मलिन करता है, पाप को लाता है, और कीर्ति को नष्ट करता है।

सीख:

1. क्रोध का एक ही कारण है – ‘अपेक्षा’, अर्थात, जिसकी जितनी ज्यादा अपेक्षा है उतना ज्यादा क्रोध इसलिए अपनी ‘अपेक्षाओं’ को सीमित करें।
2. प्राणीमात्र के प्रति थोङा-सा अपने भीतर प्रेम विकसित करना सीख लें।

Compiled by Shrish Jain, Pune

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