प्रमाण सागर जी महाराज पूजन
हे वीतराग आगमज्ञानी, श्री मुनिवर को मेरा प्रणाम।
भावी भगवन हैं आप, गुरु ने नाम दिया सागर प्रमाण।
मुनिराज आपके वंदन से, उर में निर्मलता आती है।
भव-भव के पातक कटते हैं, पुण्यावलि शीश झुकाती है।
कुछ आश नहीं भव-भोगों की, बस भगवन बनने आया हूँ।
मेरे मन-मंदिर में आओ, आव्हानन करने आया हूँ।
ॐ ह्रीं श्री प्रमाणसागर मुनिन्द्र अत्र अवतर अवतर संवोषट आव्हाननं।
ॐ ह्रीं श्री प्रमाणसागर मुनिन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्री प्रमाणसागर मुनिन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निधिकरणम।
निज स्वरुप को भूल आज तक, चारों गति में किया भ्रमण।
त्रिविध दोष हरने को मुनिवर, श्रृद्धा-नीर करूँ अर्पण।।
समकित जल की पवन धारा, निज उर अंतर में लाऊँ।
सरल स्वभावी शांत मूर्ति की, पूजन कर मैं गुण गाऊं।। जलं….
भव ज्वाला में पल-पल जलता, करता रहा करुण क्रंदन।
तव भक्ति का आश्रय लेकर, भवाताप का करुण शमन।।
क्षमा भाव का शुचिमय चन्दन, उर अंतर में लाया हूँ।
शांत स्वभावी श्री मुनिवर की, पूजन करने आया हूँ।। चन्दनं……
पर-भावों के महाचक्र में, फँसकर मैंने दुःख पाया।
भव- समुद्र-उद्वारक मुनिवर, अतः शरण में हूँ आया।।
नश्वर पद पा हार गया, अब अक्षय पद को पाना है।
हे अखंड अक्षत अनुरागी, शाश्वत सुख को पाना है।। अक्षतं……
काम भोग बंधन की कथनी, सुनी अनन्तों बार यहाँ।
निजानुभूति हुई न अब तक, शरण नहीं अब जाऊँ कहाँ।।
काम शत्रु ने बाण चलाया, घायल होकर आया हूँ।
मदन विजेता श्री मुनिवर को, पुष्प चढ़ाने आया हूँ।। पुष्पं……
इच्छाओं की भूख मिटाने, सुचिर काल से किया यतन।
तव दर्शन करते ही महका, वीतरागता का उपवन।।
क्षुधा रोग की औषध पाने, इन चरणों में आया हूँ।
समता रस का पान करूँ, यह भाव ह्रदय में लाया हूँ।। नैवेद्यं….
दीप जलाये अनगिन किन्तु, अन्तर-ताम भी मिटा नहीं।
पर-परिणति में उलझ गया, अज्ञान-तिमिर भी हटा नहीं।।
अतः हारकर तव चरणों में, ज्योति पाने आया हूँ।
पूर्ण ज्ञान की शाश्वत बाती, आज जलाने आया हूँ।। दीपं……
कर्म दुःख देते हैं फिर भी, पृथक नहीं कर पाता हूँ।
अनंत सुख का स्वामी होकर, दुःखमय गोते खता हूँ।।
शुचिमय ध्यान धूप मुनिवर की, मैं भी पाने आया हूँ।
अष्ट कर्म अरि पर जय पाने, इन चरणों में आया हूँ।। धूपं…..
महा मोक्ष फल पाने मुनिवर, भक्ति-फल ले आया हूँ।
शाश्वत सिद्धशिला पाने को, चरण शरण में आया हूँ।।
कर्म फलों से पीड़ित होकर, निज स्वरुप ना जाना है।
सिद्ध स्वरुप को पाने का अब, मुझको मिला ठिकाना है।। फलं….
अर्घ्य अनन्तों बार चढ़ाया, अनर्घ्य पद ना चाहा है।
पुण्य-कार्य भी किये अनेकों, लेकिन भाव सुख चाहा है।।
अनर्घ्य पद को समझ ना पाया, अतः शरण में आया हूँ।
परम भेद-विज्ञान प्राप्त कर, शिव-पद पाने आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्री प्रमाणसागर मुनीन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यम निर्विपामती स्वाहा।
दोहा
श्रमण संस्कृति के परम, पावन रत्न महान।
श्रेष्ठ गुरु हैं आपके, विद्या-सिन्धु गुण-खान।।
सरल स्वभावी सहज हो, ज्ञान ध्यान लवलीन।
गाऊं गुण जयमालिका, हो जाऊँ स्वाधीन।।
जयमाला
श्री मुनिवर की पूजा से निज, आत्म शांति मिलती है।
भावों की मुरझाई कलियाँ, तव दर्शन से खिलती है।।
नवीन में मुनिवर प्रमाण की, पावन गाथा गाता हूँ।
झारखण्ड में जन्म लिया पर, अखंड पद के अनुरागी।
तजा हजारीबाग बन गाये, विद्या-बगिया के रागी।।
सुरेंद्र-सोहनी माताश्री ने, नवीन रत्न को पाया था।
प्रथम दर्श में गुरुमुरात लख, रत्नत्रय ही भाया था।।
सोनागिरि में उदय हुआ तब, छायी चहुँदिश खुशहाली।
जिनकी वैरागी छवि लखकर, शर्माती सूरज-लाली।।
प्रवचन की अनुपम शैली सुन, चकित हुआ हैं सभी जहान।
विद्यासागर श्री गुरुवर के, परम शिष्य हैं आप महान।
स्नेह शांति का बिगुल बजाते, आनंद रस को बरसाते।
सहज सौम्य मुस्कान लुटाकर, भक्तों को तुम तरसाते।
पंचमेरू सम पंच महाव्रत, धारे समिति पंच महान।
पंचेन्द्रिय जय किया आपने, षट आवश्यक का गुणगान।।
सप्त शेष गुण धारण हारे, अष्ट विंशति गुण की खान।
श्री मुनिराज बसों उर मेरे, पा जाऊँ सिद्धो का धाम।।
आज आपकी पूजन करके, मेरा मन आनन्द हुआ।
जीवन सफल हुआ हैं मेरा….. पाप कर्म भी मंद हुआ।।
यही प्रार्थना करता हूँ मम, उर में ज्ञान-प्रकाश करो।
चतुर्गति के भाव-संकट का, हे मुनिवर अब नाश करो।।
गुरुभक्ति की गुरुतम महिमा, तव प्रवचन में चर्चित है।
इसलिए गुणमाल गूंथकर, श्री चरणों में अर्पित है।।
नील गगन में जब तक होंगे, सूर्य चंद्र और तारागण।
तब तक हो जयवंत धरा पर, जिनशासन के दिव्य श्रमण।।
ॐ ह्रीं श्री प्रमाणसागर मुनीन्द्राय पूर्णार्घ्यम निर्विपामती स्वाहा।
सागर अति गंभीर मम, गागर अल्प प्रमाण।
अतः मात्र चरणन करूँ, मन वचन के प्रणाम।। पुष्पांजलि…….