शौच का वास्तविक अर्थ
हम सभी स्वच्छता के महत्त्व को बाह्य स्तर पर समझते हैं — शरीर, वस्त्र, घर और परिवेश को स्वच्छ बनाए रखने की आदत सभ्य समाज की पहचान है। लेकिन जैन दर्शन में ‘शौच’ का अर्थ केवल बाहरी सफाई नहीं, अपितु अंतरात्मा की निर्मलता और आत्मवृत्तियों की पवित्रता है। दशलक्षण धर्म का चौथा धर्म “उत्तम शौच” हमें आत्मशुद्धि की ओर ले जाने वाला एक अमूल्य मार्ग है।
“प्रकर्षप्राप्त लोभात् निर्वृत्ति शौचम्” — जिसके जीवन में लोभ की चरम सीमा से भी निवृत्ति हो गई हो, वही शुद्ध कहलाने योग्य है।
आज की दुनिया में शौच धर्म क्यों?
आज हम भौतिक रूप से जितने समृद्ध हुए हैं, मानसिक और भावनात्मक रूप से उतने ही प्रदूषित होते जा रहे हैं। मोबाइल, सोशल मीडिया, भोगवादी विज्ञापन, अनावश्यक प्रतिस्पर्धा और अपार लालसा — यह सब हमारी चेतना को कलुषित कर रहे हैं। जब तक मन लोभ, तुलना, ईर्ष्या, अहंकार और हीनता से गंदा रहेगा, तब तक किसी भी बाहरी सफाई का कोई अर्थ नहीं।
वैचारिक, सामाजिक और भावनात्मक गंदगी
यह मानसिक मलिनता ही आज के युग की समस्याओं — अवसाद, असंतोष, अपराध, पारिवारिक विघटन और पर्यावरण दोहन — की जड़ है। विचारों में अशुद्धि, भावनाओं में अशुद्धि, और दृष्टिकोण में अशुद्धि हमारे जीवन को दूषित करती है।