दिवस 2: उत्तम मार्दव • दशलक्षण साधना
दिवस 2

उत्तम मार्दव

विनम्रता में छिपी है नेतृत्व की असली कला

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

प्रेरणा स्रोत

यह आत्म-चिंतन सामग्री परम पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज द्वारा लिखित है।

अहंकार का विसर्जन

आज की दुनिया में सफलता, प्रतियोगिता और प्रदर्शन का दबाव इतना अधिक बढ़ गया है कि मनुष्य अपनी नम्रता और सहजता को खोता जा रहा है। चारों ओर एक होड़ है — आगे बढ़ने की, श्रेष्ठ दिखने की, और दूसरों को पीछे छोड़ देने की। लेकिन इस अंधी दौड़ में हम यह भूल गए हैं कि विनम्रता ही वह गुण है जो हमें भीतर से महान बनाता है।

“मार्दवं परमं सौन्दर्यम्” — विनम्रता ही सच्चा सौंदर्य है।

मार्दव धर्म का सार

‘मार्दव’ का अर्थ है — कोमलता, नम्रता, अहंकार का त्याग और सहजता से हर परिस्थिति को स्वीकार करने की वृत्ति। उत्तम मार्दव धर्म, दशलक्षण धर्म का दूसरा चरण है, जो आत्मा की कठोरता को पिघलाकर उसे कोमल बनाता है। यह धर्म आत्मा को ‘मैं श्रेष्ठ’, ‘मैं ही सही’ जैसी संकीर्णताओं से मुक्त करता है।

आज के संदर्भ में मार्दव की आवश्यकता

आज समाज में बढ़ती असहिष्णुता, आक्रोश, अहंकार और कटुताएं इसी बात की ओर संकेत करती हैं कि हमने मार्दवता को कहीं खो दिया है। परिवार में पीढ़ियों के बीच संवादहीनता, ऑफिस में टीमवर्क की कमी और सोशल मीडिया पर होने वाली बहसों में भी विनम्रता की भारी कमी दिखती है।

मार्दवता ही है नेतृत्व की आत्मा

जो विनम्र है, वही सच्चा नेता बन सकता है। क्योंकि अहंकारी व्यक्ति केवल हुकूमत करता है, पर विनम्र व्यक्ति प्रभाव करता है। मार्दवता नेतृत्व में करुणा, सहानुभूति और धैर्य लाती है। यह दूसरों को सुनने की शक्ति देती है, और हर वर्ग से जुड़ने की क्षमता भी। अक्सर लोग सोचते हैं कि विनम्र होना मतलब झुक जाना या हार मान लेना। पर सत्य यह है कि जिसे अपने आत्मबल पर विश्वास है, वही नम्र हो सकता है। कमजोर व्यक्ति ही दिखावे का अहंकार ओढ़ता है।

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मार्दव की साधना कैसे करें?

विनम्रता को जीवन में उतारने के लिए कुछ सरल अभ्यास किए जा सकते हैं:

स्वीकृति का अभ्यास करें: हर व्यक्ति और परिस्थिति को स्वीकारें।

‘मैं ही ठीक हूँ’ की सोच छोड़ें: हर दृष्टिकोण महत्वपूर्ण हो सकता है।

दूसरों की प्रशंसा करना सीखें: यह हमारे अहं को गलाने में मदद करता है।

आज का संकल्प

हमारे रिश्तों की तमाम उलझनों की जड़ में एक ही समस्या है — मैं का टकराव। जब हम अपने ‘मैं’ को थोड़ा पिघलाते हैं, तो संबंधों में प्रेम और संवाद बहने लगता है। यही है उत्तम मार्दव धर्म — अहम् का संलयन और आत्मा का उत्कर्ष।

“मैं अपने भीतर के कठोर अहंकार को पहचानता हूँ और उसे कोमल विनम्रता में बदलने का संकल्प लेता हूँ।”

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