वर्तमान युग की चुनौती
हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ “जो जितना अधिक रखे, वही उतना अधिक सफल” — यह सोच प्रचलित है। बैंक बैलेंस, बंगले, ब्रांडेड चीज़ें, और दिखावे की दौड़ में हर व्यक्ति कहीं न कहीं ‘अपनों’ से दूर और ‘अपने आप’ से भी बहुत दूर होता जा रहा है। लेकिन क्या यही समृद्धि है? क्या यह संग्रह की प्रवृत्ति ही दुःखों की जड़ नहीं बन रही?
“जिसके पास सब कुछ होते हुए भी भीतर में कुछ नहीं होता — वही सच्चा अकिंचन है।”
अकिंचन्य का मर्म
“परिग्रह-निर्वृत्तिः अकिंचन्यम्।” – जिसमें किसी प्रकार की संपत्ति, संबंध, विचार, भावना या अहंकार का संग्रह नहीं — वही अकिंचन है। अकिंचनता का अर्थ केवल बाहरी संपत्ति से मुक्ति नहीं है। यह तो उस ‘भीतर के भार’ को छोड़ने की साधना है, जो मन को बाँधता है — जैसे ‘मेरे विचार’, ‘मेरी पहचान’, ‘मेरा अधिकार’, ‘मेरा धर्म’ आदि। जब ‘मेरा’ हटता है, तभी ‘मैं’ शुद्ध रूप में प्रकट होता है।
जीवन में इसकी प्रासंगिकता
एक विद्यार्थी जो परिणाम की चिंता किए बिना निस्वार्थ रूप से अध्ययन करे, वह अकिंचन है। एक गृहस्थ जो भोग-विलास में रहते हुए भी उनमें उलझा नहीं, वह अकिंचन है। एक नेता जो सत्ता में रहते हुए लोभ-मोह से परे होकर समाज के लिए कार्य करे, वह भी अकिंचन का उदाहरण है।