दिवस 9: उत्तम आकिंचन्य • दशलक्षण साधना
दिवस 9

उत्तम आकिंचन्य

भीतर से निर्लिप्त होना ही असली वैराग्य है

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

प्रेरणा स्रोत

यह आत्म-चिंतन सामग्री परम पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज द्वारा लिखित है।

वर्तमान युग की चुनौती

हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ “जो जितना अधिक रखे, वही उतना अधिक सफल” — यह सोच प्रचलित है। बैंक बैलेंस, बंगले, ब्रांडेड चीज़ें, और दिखावे की दौड़ में हर व्यक्ति कहीं न कहीं ‘अपनों’ से दूर और ‘अपने आप’ से भी बहुत दूर होता जा रहा है। लेकिन क्या यही समृद्धि है? क्या यह संग्रह की प्रवृत्ति ही दुःखों की जड़ नहीं बन रही?

“जिसके पास सब कुछ होते हुए भी भीतर में कुछ नहीं होता — वही सच्चा अकिंचन है।”

अकिंचन्य का मर्म

“परिग्रह-निर्वृत्तिः अकिंचन्यम्।” – जिसमें किसी प्रकार की संपत्ति, संबंध, विचार, भावना या अहंकार का संग्रह नहीं — वही अकिंचन है। अकिंचनता का अर्थ केवल बाहरी संपत्ति से मुक्ति नहीं है। यह तो उस ‘भीतर के भार’ को छोड़ने की साधना है, जो मन को बाँधता है — जैसे ‘मेरे विचार’, ‘मेरी पहचान’, ‘मेरा अधिकार’, ‘मेरा धर्म’ आदि। जब ‘मेरा’ हटता है, तभी ‘मैं’ शुद्ध रूप में प्रकट होता है।

जीवन में इसकी प्रासंगिकता

एक विद्यार्थी जो परिणाम की चिंता किए बिना निस्वार्थ रूप से अध्ययन करे, वह अकिंचन है। एक गृहस्थ जो भोग-विलास में रहते हुए भी उनमें उलझा नहीं, वह अकिंचन है। एक नेता जो सत्ता में रहते हुए लोभ-मोह से परे होकर समाज के लिए कार्य करे, वह भी अकिंचन का उदाहरण है।

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समाधान: आकिंचन्य का अभ्यास

हमारा सामाजिक मूल्यांकन अब ‘जोड़े गए’ से होता है, ‘छोड़े गए’ से नहीं। इसलिए हम दिखावे के बोझ तले दबते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलोअर्स का संग्रह भी आज का एक नया परिग्रह बन गया है।

स्वतः से संवाद करें: क्या मैं इन वस्तुओं के बिना नहीं रह सकता?

मनोदशा का निरीक्षण करें: क्या मुझे वस्तुओं से शांति मिलती है या उलझन?

दैनिक अभ्यास करें: हर दिन कुछ न कुछ त्यागें — वस्त्र, विचार या अहं।

आज का संकल्प

उत्तम आकिंचन्य धर्म केवल दिगंबर साधुओं की कसौटी नहीं है, यह हम सबकी साधना है — जो हमें वस्तुओं से ऊपर उठाकर आत्मा की ओर ले जाती है।

“मैं न तो किसी वस्तु का मालिक हूँ, न किसी व्यक्ति का, न किसी विचार का। मैं केवल आत्मा हूँ।”

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