उत्तम क्षमा

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उत्तम क्षमा   

आज बात ‘क्षमा’ की हैं और धर्म की हैं, जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता हैं कि धर्म की शुरुआत ही तब होती हैं, जब हमारे भीतर क्षमा भाव का आविर्भाव होता हैं। क्षमा के बिना धर्म नहीं हो सकता। क्षमा एक बहुत ही उत्कृष्ट गुण हैं और इस शब्द की अपनी एक अलग गरिमा हैं। लोक में प्रायः हम जिस क्षमा की बात करते हैं, वह तो बहुत सतही हैं, जिसमे आप क्षमा माँगते हैं और क्षमा करते हैं पर आज बात उत्तम क्षमा की हैं। हम लोग युगों से क्षमा की बात करते आ रहे हैं, क्षमा की बात सुनते आ रहे हैं। आज मैं कुछ बात आपसे करूँगा कि क्षमा हमारे जीवन में कैसे प्रतिष्ठित हो जिससे ना हमें किसी से क्षमा माँगना पड़े और ना किसी को क्षमा करने की नौबत आये। सबसे पहली बात आपको किसी से क्षमा माँगने की नौबत कब आती हैं, कब क्षमा माँगनी पड़ती हैं, जब आप कोई गलती करते हैं तो पहले गलती करो फिर क्षमा माँगो तो रोज गलती करो, रोज क्षमा माँगो और ‘मिच्छामि दुक्खड़म’ की कहानी चालू कर दो। वो हम आज तक करते आये हैं तो क्षमा माँगने की स्थिति बहुत अच्छी नहीं हैं और फिर क्षमा करो तो क्षमा कब करो? जब किसी से कोई बैर लो, किसी के प्रति वैमनस्य हो, किसी से कोई विद्वेष हो तो उसको क्षमा करो। हम उस भूमिका की बात कर रहे हैं, जहां न क्षमा माँगने की बात हैं, ना जहाँ करने की बात हैं, उसका नाम हैं- उत्तम क्षमा।

क्षमा शब्द संस्कृत के ‘क्षम’ धातु से बना हैं जो हमारी क्षमता और सामर्थ्य की अभिव्यक्ति का आधार हैं, जो हमें सहनशील बनाता हैं। क्षमा का एक अर्थ धरती होता हैं, जैसे धरती सारे संसार के प्राणियों के पदाघात को सहज रूप से सहती हैं। धरती पर सारे संसार का बोझ हैं, फिर भी धरती उसे सहन करती हैं, इसी प्रकार जो सबको सहने में समर्थ होता हैं, वह ही क्षमामूर्ति बन पाता हैं। हम कैसे बने? हमारे शास्त्रों में कहा हैं कि किसी से कुछ खटपट हो जाये, उसके बाद क्षमा माँगना और क्षमा करना, ये बहुत नीचे की क्लास की बात हैं। उत्तम तो यह हैं कि खटपट होने के बाद भी मन में कुछ अटपट ना हो, यह क्षमा हैं। प्रतिकार करने की सामर्थ्य होने के उपरांत भी सामने वाले के अपकार को, दुर्व्यवहार को सहना क्षमा हैं, उसके अपकार को सहे, उसके दुर्व्यवहार को सहें, यह क्षमा हैं। ये कैसे सहें, चार बातें आप सब से करूँगा जिससे क्रोध और क्षमा दोनों की परिणीतियाँ प्रकट होती हैं।

प्रतिकार

स्वीकार

सत्कार

सुधार

चार शब्द हैं- प्रतिकार, स्वीकार, सत्कार और सुधार

सबसे पहली बात हैं- प्रतिकार की। प्रतिकार ही क्रोध हैं, आप अपने मन से पूछ कर के देखे और अपने मन में झाँकिये, क्यों प्रतिकार करते हैं। जो हमारे लिए अस्वीकार्य होता हैं, जो अस्वीकार होता हैं, हमारे तन को, हमारे मन को, हमारे वचन को, हमारे जीवन में जिसका जो व्यवहार स्वीकार नहीं होता, हम उसका प्रतिकार करते हैं। प्रतिकार कैसे करते हैं? समता से? कैसे करते हैं? क्रोध से प्रतिकार करते हैं। प्रतिकार मात्र क्रोध हैं। किसी भी बात का प्रतिकार एक प्रकार के क्रोध की अभिव्यक्ति हैं तो प्रतिकार मात्र क्रोध हैं। देख लीजिए, जो चीज सहन नहीं हुई, आप उसके विषय में अपनी प्रतिक्रिया देते हो। कैसी प्रतिक्रिया होती हैं? ये अंदर उस बात को पचा ना पाने के कारण ही ऐसे शब्द भरते हैं पर  उस प्रतिक्रिया करने की लोगों की अलग-अलग परिणति होती हैं। कई लोगों की प्रतिक्रिया सौम्य होती हैं और कईयों की प्रतिक्रिया उग्र हो जाती हैं। हम तो उग्र प्रतिक्रिया को ही बुरा मानते हैं लेकिन संत कहते हैं- ‘यह सौम्य प्रतिक्रिया ही आगे चल कर के उग्र बनती हैं’। चिंगारी ही दावानल बनती हैं, इस बात को कभी मत भूलना और जब तक हम प्रतिक्रियावादी मनोदशा से जुड़े होते हैं तब तक हमारे साथ ऐसी दुरस्थितियाँ निर्मित होते रहती हैं, उस प्रतिकार से अपने आप को बचाओ। मैं आपसे पूछता हूँ, आपको किसी ने कोई अपशब्द बोला, अपशब्द बोला, आपने उसे सुनकर के अनसुना कर दिया और कोई प्रतिकार नहीं किया तो आपके मन में किसी भी प्रकार का कोई क्षोभ आयेगा। सामने वाले ने शब्द बोला- इसलिए मुझे गुस्सा आया। सामने वाले के बोलने से तो गुस्सा नहीं आता, नींद में हो और कोई उसको सौ गालियाँ सुना दे तो गुस्सा आएगा क्या। अभी आप मेरे प्रवचन को ध्यानमग्न होकर के सुन रहे हैं और आप के पीछे वाला बोले कैसे एंगल में बैठ गया, समझ में नहीं आता कैसा ढीठ हैं। हमको महाराज जी नहीं दिख रहे, वो बोल रहा हैं और आपने नहीं सुना तो गुस्सा आया क्या। गुस्सा कब आता हैं? जब हम सामने वालों की बात को स्वीकार करते हैं और फिर जब स्वीकार करते हैं तो प्रतिकार होता हैं। आपके साथ किसी का दुर्वचन, किसी का दुर्व्यवहार या कोई दु:ख प्रसंग जीवन में आया, आपने उसको स्वीकार कर लिया और इस बात को पकड़ लिया और पकड़ने के बाद आपने उसको प्रतिकार कर दिया। वो प्रतिकार कैसे होता हैं? गुस्से के रूप में प्रतिकार होता हैं। संत कहते हैं- तुम गुस्से से प्रतिकार करते हो, जीवन का मजा लेना हैं तो गुस्से का प्रतिकार करना सीखो‘। आप गुस्से को तो स्वीकार किए हो तो फिर उससे मुक्ति कहाँ मिलेगी, फिर क्षमा की बात कहाँ  हैं। लोगों से यहाँ तो कहा गया कि कुछ हो तो भी उसको चुपचाप सह लो, क्रोध आये ही नहीं और यहाँ तो जब किसी से क्षमा माँगने की बात आती हैं तो देखो वहां भी चार स्थितियाँ होती हैं। क्षमा माँगना, क्षमा करना, क्षमा मंगवाना और क्षमा करवाना।

चार स्थितियाँ, क्षमा माँग ली, कोई हृदय से भर कर क्षमा माँगता हैं और कई लोग ह्रदय से भर कर के क्षमा कर भी देते हैं, ये ठीक हैं लेकिन कई लोग ऐसे होते हैं जिनसे क्षमा मँगवानी पड़ती हैं, अरे हम से क्षमा माँगो, तब हम जानेंगे, उसको क्षमा माँगनी पड़ेगी। किसी ने गलती कर दी और बाद में क्षमा माँगे तो कहते हैं, गलती तो तुमने सब के बीच की और क्षमा हमसे अकेले माँगोगे, तुम्हे सार्वजनिक क्षमा माँगनी पड़ेगी। फिर क्षमा माँगने वाला कहता हैं, ठीक हैं, मैं भी क्षमा माँग लूंगा पर मेरी भी एक शर्त हैं, कंडीशन हैं, सामने वाला भी कहता हैं- मैं भी क्षमा करूँगा पर मेरी भी ये शर्त हैं। कहाँ क्षमा? क्षमा बहुत उच्च स्थिति में प्रकट होती हैं, जिसे पूर्ण सहिष्णु व्यक्ति ही धारण कर सकता हैं। मैं आज आपसे कह रहा था- प्रतिकार,  तय करो, मुझे किसी का प्रतिकार नहीं करना। जब किसी का प्रतिकार ही नहीं करोगे तो ना किसी से क्षमा माँगनी होगी, ना क्षमा करनी होगी। महाराज! क्या करे, कोई कुछ बोल दे तो उसको चलने दे।ठीक हैं, तो उलझ कर देख लो। दुनिया के साथ तुम्हारे जो सम्बन्ध हो, वह तुम जानो पर कम से कम अपने घर परिवार में तो यह रखो कि किसी का स्वभाव अच्छा नहीं हैं, किसी की प्रवृत्ति ठीक नहीं हैं। जिनके साथ हमें जीवन बिताना हैं, यदि मुझे उसने कोई दो बात बोल दी तो मैं उसे नजरअंदाज कर लूँगा। अगर मेरे पिता ने मुझे अकड़ कर के कुछ बात कह दिया तो ठीक हैं पिता ने कहा हैं। मेरे भाई ने कह दिया तो ठीक हैं मेरा भाई हैं, वह मेरे गार्जियन के तुल्य हैं। पति ने कह दिया तो पति हैं, उसको कहने का हक हैं और पत्नी ने सुना दिया तो क्या हुआ मेरी अर्धांगिनी हैं, उसी ने ही तो सुनाया हैं, क्या फर्क पड़ता हैं। इसमें क्या फर्क पड़ता हैं? माँ ने कह दिया तो माँ की बात को तुम नजरअंदाज कर दो। पिता ने कह दिया तो पिता की बात को नजरअंदाज कर दो। भाई ने कहा तो भाई की बात, पति ने कहा तो पति की बात, पत्नी ने कहा तो पत्नी की बात, देवरानी ने कहा तो देवरानी की बात, जेठानी ने कहा तो जेठानी की बात, अगर इतना कर लो तो बोलो कोई झमेला बचेगा। नहीं बचेगा, लेकिन क्या करें? महाराज! इनको छोड़कर बाकी सब से कर लेंगे। कहानी क्या हैं? महाराज! इन्ही की बात नहीं पचती, बाकी की पचती हैं।

एक बार एक बहन जी ने अपने पति की तरफ इशारा करते हुए कहा कि महाराज! इनको समझाओ, ये मेरी छोड़कर के बाकी सब की सुनते हैं पर मेरी नहीं सुनते तो पति बोला- महाराज! ये इतना सुनाती हैं कि सुनने की ताकत ही नहीं तो क्या सुनूँ।  क्या हाल हैं, हम कहां हैं, हमारी दृष्टि कहां हैं? हमें वह देखना हैं, मन में अनावश्यक तनाव, सम्बन्धों में अनपेक्षित खटास, हमारे अशांति और उद्वेग का कारण हैं, वहाँ क्षमा धर्म को अपना लो, देखो, जीवन में कैसी समरसता प्रकट होती हैं। ठीक हैं, क्या बात हैं, नजरअंदाज करो, इग्नोर करो इसे, पकड़ने की बात ही नहीं, नहीं, मैं तो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता, मैं तो उसको क्षमा नहीं करूँगा, नहीं करूँगा तो गाँठ बाँधकर ले जाओ। यहाँ से कहाँ ले जाओगे? भवान्तरों तक ले जाओगे। पारसनाथ और कमठ की कहानी को अपने सामने रखो, 10 भव तक एकतरफा बैर बना रहा। तुम क्या करोगे? और उनके साथ जिनके साथ तुम्हे 24 घंटे रहना हैं, उनके साथ तुम प्रेम से रहों, शीत युद्ध करके क्यों रहते हो। चलता हैं ना आप लोगों का शीत युद्ध खासकर पति-पत्नी के मध्य ज्यादा होता हैं, यही अज्ञान हैं।

यदि मनुष्य यहाँ पर अपनी थोड़ी सी समझ को जागृत कर ले तो उसके जीवन की दिशा-दशा सब सहज रूप से परिवर्तित हो जाए फिर उसे ज्यादा कुछ की जरूरत नहीं। ठीक हैं, हम इसका कोई प्रतिकार नहीं करते हैं तो क्या करें? स्वीकार कर लो, उसकी बात को। ठीक हैं, ये accepted(एक्सेप्टेड) हैं। अभी मैं आपसे पूछता हूँ, मैं अगर आपको इस सभा में कुछ कह दूँ तो आप क्या करोगे? क्या करोगे? अगर सच्चे भक्त हो गए, ज्यादा ऐसे ही हैं जो पाँव भी पड़ते हैं, पूजा भी करते हैं और बातें भी करते हैं, ऐसे भक्तों की संख्या ज्यादा हैं। रतलाम में कोई नहीं हैं, सब बाहर के हैं। यह प्रवचन मैं रतलाम वालों को थोड़ी दे रहा हूँ, रतलाम के लोग तो सब दूध के धुले हैं। मैं आपसे कह रहा हूँ, अगर सच्चा भक्त होगा तो उसको कुछ कह भी दिया जाए, यद्यपि मैं कहूँगा नहीं, चिंता मत करना मेरे नेचर में नहीं हैं पर अगर कह भी दिया जाए तो उसको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्यों? अपने ही महाराज हैं। क्या हुआ, उनने कुछ नहीं बोला, उनको हक़ हैं, वे हमारे गुरु हैं, वो हमारी गलतियाँ नहीं बताएँगे तो कौन बताएगा, वो उनकी डाँट  नहीं उनका आशीर्वाद हैं, स्वीकार लोगे। मेरे साथ तुम्हारा श्रद्धा और आत्मीयता भरा सम्बन्ध हैं, अपनी श्रद्धा और आत्मीयता से भरे सम्बन्ध से प्रेरित होकर के तुमने उसे स्वीकार कर लिया तो फिर मैं इतना ही तो कहता हूँ, जो तुम्हारे पिता हैं, जो तुम्हारी माँ हैं, जो तुम्हारा भाई हैं, जो तुम्हारी बहन हैं, जो तुम्हारी पत्नी हैं, जो तुम्हारा पति हैं, जो तुम्हारा पुत्र हैं, जो तुम्हारी पुत्री हैं, यदि कुछ उपचुक में बोल दे तो उसका नेचर मान करके इसको स्वीकार क्यों नहीं करते? इतना ही तो करना हैं, क्या करना हैं। केवल मन को बदलना हैं, ठीक हैं, हम इस बात को स्वीकार करते हैं। जिसके प्रति मनुष्य के मन में प्रेम होता हैं, श्रद्धा होती हैं, उसकी बुरी बात भी मनुष्य को बुरी नहीं लगती और जिसके प्रति द्वेष होता हैं, उसकी अच्छी बात भी हृदय को चुभती हैं,तो क्यों ना हम प्रेमपूर्ण सम्बन्धों को बढ़ावा दे और अपने प्रेमपूर्ण सम्बन्धों को बढ़ावा देना चाहते हो या प्रेमपूर्ण सम्बन्ध को और आगे बनाना चाहते हो तो हमें चाहिए कि हम उन बातों को नजरअंदाज करना सीखे, जिससे मन में खलबली होती हैं, जिससे चित्त क्षुब्ध होता हो तो उन बातों को नजरअंदाज करने का अभ्यास हमारा होना चाहिए। यह अभ्यास हो गया तो टेंशन फ्री फिर तुम क्षमा मूर्ति हो जाओगे, फिर कुछ कहने की जरूरत नहीं हैं। महाराज! बाकी सब बातें हो जाती हैं, यही नहीं होता। अरे होता रहता तो यहाँ शिविर में आने की जरूरत ही क्या थी, बीमारी नहीं तो डॉक्टर के पास जाओ क्यों? बोलो, डॉक्टर के पास कौन जाता हैं, स्वस्थ या बीमार। तुम्हारे यहाँ बीमार आते हैं कि स्वस्थ। बीमार आते हैं, तो ये बीमारी हैं इसलिए आए हो। अब क्या करना हैं, बीमारी पकड़ में आ गई तो इलाज कराना हैं या नहीं कराना हैं। बताओ? तो आज से चिकित्सा शुरू हो रही हैं तुम्हारी और 10 वें दिन यहाँ से पूरी तरह स्वस्थ होकर, मस्त होकर के निकलना हैं, ये संकल्प लेकर के जाओ। हम लोगों का कोई केस खराब नहीं होता, एक भी केस नहीं बिगड़ता, 100% अच्छा रिजल्ट हैं, बस एक ही अपवाद हैं, जो दवाई नहीं खाये, उसको हम क्या करें। कुछ ऐसे भी हैं इसमें जो prescription(प्रिस्क्रिप्शन) लेकर घूमेंगे और कहेंगे देखो, मेरा क्या बढ़िया इलाज बता दिया, ये  फॉर्मूला हैं, टॉप की दवाई हैं, खाएंगे, ये prescription(प्रिस्क्रिप्शन) हैं पर दवाई न खाए तो डॉक्टर क्या करेगा। मैं लोगों से कहता हूँ कि लाइन में मत लगना, दूसरों का समय खराब मत करना, जो prescription(प्रिस्क्रिप्शन) तुम्हे प्राप्त हुआ हैं तो तुम उस क्षण का अनुपान करना सीखो। जीवन में तभी रूपांतरण होगा, तुम्हारे भीतर दृष्टि जाग जाए तो तुम अपने जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन घटित कर सकते हो।

धर्म की व्याख्या हम खूब सुनते हैं लेकिन उसे जीवन-व्यवहार में उतारने का प्रयास बहुत कम करते हैं। हमारा दृष्टिकोण पूरी तरह जीवन-व्यवहार मूलक होना चाहिए। इसलिये मैं आपसे बहुत गूढ़ अध्यात्म की बात नहीं करता पर उस अध्यात्म के माध्यम से मैं आपको उस व्यवहार की बात सिखाता हूँ जो आपको एक सुखी, शांत और प्रसन्न मनुष्य के जीवन जीने का भाग्य दिला सके और आपके जीवन का वरदान बन सके,तो क्या कह रहा हूँ, प्रतिकार करना नहीं। किसी का प्रतिकार मत करो और प्रतिकार करो भी तो गुस्से से प्रतिकार मत करो, प्रेम से प्रतिकार करो। कैसे करो? कहते हैं कि तुम्हारा क्या बिगड़ जाता, जो गुस्से में कहा हैं, वही हँस के कह दिए होते।

तुम्हारी शान घट जाती या रुतबा घट गया होता, तुम्हारा क्या बिगड़ जाता, जो गुस्से में कहा वही हँसके कह दिया होता।

मैं यथासंभव प्रतिकार नहीं करूँगा और यदि प्रतिकार करना भी पड़ा तो तीखी प्रतिक्रिया नहीं करूँगा, गुस्से में प्रतिकार नहीं करूँगा। एक बात और बोलता हूँ- अगर सामने वाला गुस्से में हो तो तुम शांत हो जाओ और तुम्हारे मन में गुस्सा हो तो अपने आप को संयत रखने की कोशिश करो, ज्यादा लड़ो मत क्योकि मुँह से आग निकलेगी, उस घड़ी पी जाओ।

प्रेम पूर्ण प्रतिकार देखो कैसा प्रतिकार होता हैं। पति भोजन कर रहा था, सब्जी में मिर्च बहुत तेज थी पर पति बड़ा सहनशील था क्योंकि उसके पास उसके अलावा कोई चारा ही नहीं था,क्योकि पत्नी ऐसी थी जिसको केवल झेलने वाला निभा सके, ऐसी पत्नी थी, अब मिर्च ज्यादा और मिर्च की झाँस से आँखों से आँसू। पत्नी ने देखा और बोली आप रो क्यों रहे हो? पति बोला, रो नहीं रहा ये तो खुशी के आँसू हैं। पत्नी ने पुछा कि किस बात की खुशी? पति बोला, ऐसी स्वादिष्ट सब्जी आज तक नहीं मिली, इस की खुशी में रो रहा हूँ तो पत्नी ने कहा थोड़ी सब्जी और डाल दूँ क्या। बोले, बस अब ज्यादा खुशी बर्दाश्त नहीं होगी | ये भी प्रतिक्रिया हैं पर आप थोड़ी ना कर सकते हो। मुझे तो लगता हैं कि मिर्ची के तीखेपन से ज्यादा आप के तेवर में तीखापन आ जाएगा, पता नहीं क्या कर लोगे। वहीं अपने आप को रोकना हैं, वही अपने आप को बचाना हैं, वही अपने आप को सँभालने की कोशिश करनी हैं। यदि ऐसा करोगे तब ही हम अपने जीवन में सार्थक उपलब्धि घटित कर सकेंगे तो प्रतिकार नहीं करना और करे तो गुस्से में नहीं, प्रेम से प्रतिकार करें।

प्रेम से प्रतिकार करने का तरीका, अगर किसी व्यक्ति ने आपके घर-परिवार में कोई गलती की तो लगता हैं कि महाराज! आप तो जानते हैं लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से सामने वाले की गलती को अगर ठीक ढंग से नहीं बताया जाए तो उस गलती की बार-बार पुनरावृत्ति होगी, मामला गड़बड़ होगा। हम अगर अपने ऑफिस में रहने वाले subordinate से अगर इस तरह का व्यवहार नहीं करें तो काम हैंग होगा, हमारे सामने बहुत सारी व्यवस्थायें होगी। ठीक हैं, मैं आपसे नीचे आ जाता हूँ, आपके लेवल पर आ जाता हूँ, आप प्रतिकार कीजिए पर बेटे ने या बहू ने गलती की और नौकर-चाकर सबके सामने आपने उनको एकदम खड़ी डाँट पिला दी। एक प्रतिक्रिया यह हैं कि आपने बेटे को बुलाया प्रेम से या बहू को बुलाया प्रेम से, कमरे में बुलाया और बैठाया और उसके बाद उससे कहा कि तुमने ये किया हैं, ठीक नहीं हैं और यह हम बर्दाश्त नहीं करेंगे, घर में ऐसी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। बोलिए, बेटे पर किसका प्रभाव ज्यादा पड़ेगा पहले वाली बात पर या दूसरी वाली बात पर? दूसरी वाली बात पर। आप लोग करते कौन सी बात हैं? तो कैसे काम चलेगा? अब आज से क्या करोगे यह बताओ?  बस इतना ही करना हैं, हिदायतें दीजिए, आवश्यकता पड़ने पर डाँट-फटकार भी कीजिए पर प्रेम के साथ, सामने वाले के मान को सुरक्षित रखते हुए। यदि आप करेंगे तो फिर कभी कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी और नहीं तो फिर पहले आग लगाओ फिर पानी डालो, भैया, क्षमा कर दो, सॉरी-सॉरी, इसकी जरूरत क्या हैं। हमारे सम्बन्ध इतने मधुर हो कि हमारे साथ ऐसी स्थिति उत्पन्न ही ना हो तो जीवन का सही मजा आएगा।

प्रतिकार करना हैं, गुस्से का प्रतिकार कीजिए। किसका प्रतिकार कीजिए? गुस्से से प्रतिकार नहीं, गुस्से का प्रतिकार। गुस्से का प्रतिकार क्या हैं? गुस्सा को पी जाना, गुस्सा को पचा जाना, यही गुस्से का प्रतिकार हैं। गुस्सा को निकालना खतरा हैं और गुस्सा को पचाना साधना, बस हमे इस गुस्से को पीना हैं और पीकर के क्या करें। जहाँ गुस्सा आये वहाँ से खिसक जाओ, जिस पर गुस्सा आये उससे थोड़ी दूर हो जाओ और जिस निमित्त से गुस्सा आये उस निमित्त को टालने की कोशिश कर दो, काफी-कुछ लाभ इसके बदौलत हो जाएगा तो पहली बात प्रतिकार, दूसरी बात स्वीकार, प्रतिकार न करें और करें तो प्रेम से करें।

दूसरी बात स्वीकार का मतलब बुरी बात को भी हम अच्छे रूप में स्वीकार करने का अभ्यास बनायें। किसी की कोई बुरी बात हैं तो बुरी बात को भी हम अच्छी बात के रूप में स्वीकार करें। ठीक हैं, कह दिया, कोई बात नहीं, उसको कहने का हक हैं, कोई दिक्कत नहीं, हो गया, हो जाने दीजिए। दुर्वचन, ठीक हैं, कोई बात नहीं चलेगा, दुर्व्यवहार चलेगा, दुःप्रसंग चलेगा, कभी कोई गुस्सा आएगा ? गुस्सा कब आता हैं, जब किसी की बात को हम स्वीकार नहीं कर पाते, पचा नहीं पाते तो गुस्सा आ जाता हैं।

एक सज्जन, उनकी धर्मपत्नी बहुत तेज स्वभाव की थी और वह औरो से तो बहुत प्रेम से बोलती हैं लेकिन अपने पति से प्रायः बड़े कर्कश शब्दों में बोलती थी। एक रोज की बात हैं, मेरे कमरे के बाहर वो सज्जन थे, समाज के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और वह माताजी भी आ गई और पति-पत्नी दोनों एक दूसरे से मिले और जो उन को झाड़ना शुरू किया, वह बेचारा चुपचाप सुन लिया। उसी समय उनके एक मित्र थे, वो बोले, तुम्हारी धर्मपत्नी ऐसा बोलती हैं, तुम कुछ नहीं बोलते। पति बोला, ठीक हैं, ये तो मैं 35 साल से सुन रहा हूँ, बोलने की जरुरत क्या हैं, ये उनका नेचर हैं, झेलना हैं, काम खत्म। तुम लोगों में भी कईयों के 35 हो गए होंगे, कइयों को 50 और कइयों के 25, कइयों के 10-15 होंगे और कइयों की शुरुआत होगी। झेलना तो जिंदगी भर हैं तो मेरा यह कहना हैं कि झेलना ही हैं तो आनंद से झेलो, मजा तो उसी का हैं। स्वीकार करते हो तो और स्वीकार नहीं करते हो तो दोनों स्थितियों में बात तो एक ही हैं, हमें इतनी सी समझ अपने भीतर विकसित करनी हैं। जो हैं स्वीकार करें फिर सत्कार।

सत्कार, जिनके प्रति मन में हमारे थोड़ा भी दुर्भाव हो और वो दूर करने की स्थिति में आ जाए, क्षमा माँगने की बात आ जाए तो फिर आप उसको हृदय से लगाना शुरू कर दीजिए, पुरानी स्मृतियों को एक तरफ कर दीजिए। मैंने देखा हैं प्रायः लोग एक बड़ी भूल करते हैं, किसी के साथ कभी कोई खटपट हो जाए तो गाँठ बांध लेते हैं, कोई निमित्त आने के बाद गले भले मिल जाए पर गिले-शिकवे नहीं मिटा पाते, वो स्मृतियाँ अंदर से उद्वेलित करते रहती हैं कि नहीं यह, मैं इसको माफ नहीं कर सकता। उस भाव को साफ करने का तरीका ह्रदय से उसका सत्कार करना शुरू कर दो, ठीक हैं, वह बीते हुए कल की बात हैं, वह भूतकाल की बात हैं, मैं उसको खत्म करता हूँ, मैं present(प्रेज़न्ट) को देखता हूँ, मैं बर्तमान को देखता हूँ, वो जो था सो था, अब जो हैं उसकी बात करना हैं और मैं केवल उसकी ही बात करना पसंद करूँगा। यह  दृष्टिकोण अगर अंतरंग में विकसित हो जाये तो जीवन का मजा ही कुछ और होगा।

मैं एक ऐसे सज्जन को जानता हूँ, जिसका एक व्यक्ति से 14-5 सालों से बहुत ज्यादा अनबन, अनबन ऐसी कि एक-दूसरे के घर भी नहीं जाना-आना, बड़ी अनबन थी लेकिन एक निमित्त आया, दोनों की खटास मिटी, दोनों में वापस प्रेम-भाव आ गया और बड़े घुलमिल कर के रहने लगे, ऐसे जिसे देख कर के कोई कह ही नहीं सकता कि इनकी आपस में कभी कोई तरह की खटास रही हो, वर्षों की खटास। किसी ने पूछा, भैया, तुम्हारे साथ उस आदमी ने इतना धोखा किया, दुर्व्यवहार किया और आज तुम उसके साथ इतने हिल-मिल कर रहे हो, आखिर यह ताकत तुमने कहाँ से पाई। उसने जो बात कहीं, वह आप सबको ध्यान देने लायक हैं। उन्होंने कहा, मैंने अपनी अतीत की सारी बातों को भुला दिया हैं और नया भविष्य गढ़ने  का संकल्प लिया हैं, मैं उसको देख रहा हूँ, अब सब अच्छा हैं। मुझे भरोसा हैं, आगे भी अच्छा होगा पर ऐसा कर पाते हैं। अच्छा करते समय भी सामने वाला सब अच्छा करें लेकिन नहीं, मेरे साथ 20 वर्ष पहले ऐसा किया, 25 वर्ष पहले ऐसा किया, ऐसा कहा, यह जो हम करते हैं, यह किसी का सत्कार हृदय से नहीं करने देता और जब हम किसी का हृदय से सत्कार करने में असमर्थ होंगे तो हमारे भीतर उस क्षमा का अवतरण कैसे होगा। बैर-विरोध की गाँठ कैसे खुलेगी, उसका सत्कार कीजिए, गले से लगाइये, अपनाइये तब उसके जीवन में अपेक्षित परिवर्तन घटित होगा और उसका जीवन-व्यवहार बदल सकेगा। लोग बहुत कम कर पाते हैं ऐसा, इसीलिए उलझते रहते हैं।

क्षमा धर्म कहता हैं- मन को ग्रंथि से मुक्त करो, मन में कोई गाँठ ना हो, एकदम साफ पानी जैसा मन बना लो, कुछ नहीं ठीक हैं, हमें तो किसी का प्रतिकार करना ही नहीं और यदि हो भी जाए तो उसको खत्म करना हैं, सत्कार करना हैं। मरुभूति और कमठ के जीवन को हम देखे, पारसनाथ का जीव, उसने गाँठ बाँध ली कमठ ने और पारसनाथ के जीव उसको माफ करने के लिए जा रहे हैं लेकिन उसके हृदय में गलतफहमी, वह सत्कार करने के लिए जा रहे हैं और वह उल्टा तिरस्कार कर रहा हैं, प्रतिकार कर रहा हैं। सीख लीजिए, प्रेरणा लीजिए कि कोई भी मामला यदि इस तरह का होगा तो मैं उसे कभी लंबा नहीं खींचने दूँगा, उसको वहीं के वहीं खत्म करने की चेष्टा करूँगा, यह मनोभाव यदि हमारा विकसित हो गया तो वह हमारे जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि बनेगी, इसमें कोई भी संशय वाली बात नहीं हैं। जब आप किसी का सत्कार करोगे तभी उसमें भी सुधार होगा और आप में भी सुधार होगा।

सत्कार के बाद हैं सुधार। गुरु का सत्कार कीजिए, गुणी का सत्कार कीजिए, अच्छाइयों को प्रोत्साहित करने का प्रयास कीजिए और उसके बाद देखिये सामने वाले में क्या परिवर्तन आता हैं, अपने आप बदल जाएगा। मैं आपसे पूछता हूँ, कोई व्यक्ति आपसे दुर्व्यवहार करें और आप उसके दुर्व्यवहार को सह लो चुपचाप और उसे नजर अंदाज कर दो तो उस व्यक्ति के मन में आपके प्रति क्या धारणा होगी। दो प्रकार की धारणा हैं, पहली धारणा तो ये बनेगी कि आदमी बुद्धू हैं, ये आदमी कमजोर हैं, इसको (cheat) कर लो लेकिन जैसी ही तुम्हारी सामर्थ्य का उसे पता चलेगा, उसके हृदय में शर्मिंदगी आएगी कि नहीं आएगी, अपने आप आएगी। अरे मैंने इस आदमी को समझा नहीं था, इसके बारे में मैंने इतना उटपटांग बोल दिया लेकिन यह चुपचाप सह रहा हैं, यह हैं जीवन का मर्म। सत्कार से सुधार होता हैं।

हमने सुना कि मदन मोहन मालवीय ट्रेन में यात्रा कर रहे थे, वो अपनी सीट पर बैठे थे, एक युवक भी वहीं बैठा था, मालवीय जी को जानता नहीं था लेकिन वह मालवीय जी का घोर आलोचक था, आलोचना कर रहा था, उनके व्यक्तिगत चरित्र पर आक्षेप कर रहा हैं और यह सारा काम किसके सामने हो रहा था, खुद मदन मोहन मालवीय के सामने। वो उसकी पूरी बातें सुनते रहे और यह देखते रहे कि इस के मन में क्या-क्या हैं, क्या-क्या हैं और संयोगतः एक स्थान पर मालवीय जी को अपना भाषण देने जाना था, ट्रेन रुकी और वहाँ हजारों की संख्या में लोग उनके स्वागत के लिए तत्पर थे, वह उतरे और उनके गले में माला डाला और मालवीय जी जिंदाबाद के नारे लगने लगे। वो आदमी भौंचक्का रह गया, अरे ये आदमी मालवीय हैं, मैंने इसको इतनी देर तक घंटों मालवीय की बुराई सुनाता रहा और यह चुपचाप सुनता रहा, तत्क्षण उसके हृदय में आत्मग्लानि का भाव जग उठा और चरणों में गिर पड़ा और बोला माफ कीजिएगा, मैंने आपको समझा नहीं, जो मैंने सुना था वह गलत था, आपने मुझे अभिभूत कर दिया हैं। जीवन पर्यंत वह आदमी उन्हें नहीं भूल सकता,तो देखो अगर किसी को मित्र बनाना हैं तो उसे क्षमा कर दो और दुश्मनी बढ़ाना हैं तो बदला लेना शुरू कर।

बदला लेने का क्या मजा, मजा तो तब हैं जब सामने वाले के हृदय को बदल डालो, यह बात अपने मन-मस्तिष्क में रखो। बदला लेने का मजा केवल एक पल का होता हैं लेकिन क्षमा करने का आनंद पूरे जीवन होता हैं इस बात को कभी मत भूलना। इसलिए अब हम बदला लेने की बात करेंगे, सामने वाले को बदलने की बात करेंगे और वो नहीं बदले तो खुद का दृष्टिकोण बदल लेंगे, उसके प्रति हमारे जीवन का हल हो जाएगा, हम अपने जीवन को निहाल कर लेंगे, हमारा जीवन धन्य हो जाएगा। तो ये क्षमा की बात आज मैंने आप सबसे की। यहीं पर विराम ले रहा हूँ, बोलिए परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की जय।

 

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