अच्छी सोच के धनी बनिये

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अच्छी सोच के धनी बनिये

एक व्यक्ति समुद्र के किनारे पर गया, समुद्र को देखकर उसने कहा कि सागर तुम विशाल हो, तुम्हारे अंदर अपार रत्नराशि है लेकिन तुम्हारा पानी बहुत खारा है। उसकी दृष्टि चाँद पर पड़ी और चाँद से कहा कि चाँद तुम्हारे अंदर का यह दाग तुम्हारी सुंदरता को कुंठित करता है। आगे बढ़ा उसे एक गुलाब का पौधा दिखाई पड़ा, गुलाब के पौधे को देखकर उसने कहा-गुलाब तुम्हारे कांटे यह बड़े चुभन देते हैं। अचानक उसे कोयल की मधुर कूक सुनाई पड़ी और उसने तत्क्षण कोयल की तरफ ध्यान देते हुए कोयल से कहा- कोयल तुम्हारा काला रंग आँखों को चुभता है। थोड़े आगे बढ़ने पर उसे एक मोर दिखाई पड़ा अब मोर को देखकर उसने कहा- मोर तुम्हारी आवाज़ बहुत बेसुरी है। आगे चला जा रहा था के एक देवता उसे दिखा और देवता ने उसे देखते हुए कहा कि मनुष्य तुम बहुत अच्छे हो पर तुम्हारे अंदर दोष देखने का गुण प्रकट हो गया, काश वह ना होता तो तुम भगवान बन गए होते। यह दोष देखने का गुण, बात समझ रहे हैं? आप लोग बहुत गुणी हैं। आज बात मुझे ‘द’ की करनी है क्योंकि बीच में दो क्रम का 3 दिन से दूसरा था।

‘द’! चार बातें आज आपसे कहूँगा –

1.दोष देखना

2.दोषारोपण करना यानी सामने वाले पर दोष लगाना (दोष देखना, दोषारोपण करना यानी सामने वाले पर दोष लगाना)

3.दोष ढाँकना और

4.दोषों का शोधन करना।

अगर हम अपने जीवन में रहने वाले दोषों को देखें, खुद के दोषों को देखें तो इससे अच्छा और कुछ नहीं। हम खुद के दोषों को देखेंगे तो फिर हम अपने जीवन को दूषित करने से बचा सकेंगे और तभी हम अपने दोषों का शमन और शोधन कर सकेंगे। खुद के दोष देखना एक गुण है और औरों के दोषों को देखना हमारी दुर्बलता। अपने मन से पूछो तुम्हारा चित्त किधर खींचता है, अच्छाई के प्रति या बुराई के प्रति? दोषों के प्रति या गुणों के प्रति? बोलो! मनुष्य की यह एक बड़ी कमजोरी है, उसका चित्त अच्छाई पर कम , बुराई की ओर ज्यादा आकर्षित होता है। हर व्यक्ति दूसरे की कमजोरी की तरफ खींचता है।

संत कहते हैं – ‘बुराई देख कर तुम क्या करोगे? खुद को तो देखो।’ दोष दर्शन की वृत्ति मनुष्य की एक बहुत बड़ी दुर्बलता है और ऐसा वह ही करते हैं जिनका व्यक्तित्व उथला होता है। जिनका व्यक्तित्व गहरा होता है, उनकी दृष्टि बड़ी पवित्र होती है, वह बुरे से बुरे व्यक्ति में भी उसकी अच्छाई देख लेते हैं और जिनका व्यक्तित्व उथला होता है, वह बड़े अहमन्य, ईर्ष्यालु ,असहिष्णु और अनुदार प्रवृत्ति के लोग होते हैं। उनमें दूसरे की अच्छाई दिखती नहीं। जो खुद को ही अच्छा माने वह दूसरों को कभी अच्छा नहीं मान सकता, वह आत्मश्लाघा से भरा होता है। उसके मन में आत्मप्रशंसा की प्रबल भावना होती है। वह अपने आगे और किसी को देखना ही नहीं चाहता, गिनना ही नहीं चाहता और ऐसे व्यक्ति के सामने जब कोई औरों की प्रशंसा करें तो उसे हजम ही नहीं होता। वह शुरुआत कर देता है औरों की निंदा,आलोचना, उनके दोषों का उद्द्भावन, जो हमारी एक बहुत बड़ी दुर्बलता है। अपने मन को टटोल कर देखो, मेरा ध्यान जब किसी पर जाता है तो उसकी अच्छाइयों पर जाता है या बुराइयों पर, अगर अच्छाइयों पर जाता है तो तुम्हारे जीवन की राह सही है और बुराइयों पर जाता है तो तुम्हारी राह गलत है। यह हमें तय करना है की हमारा ध्यान किधर जा रहा है। मन को पलट कर देखो जिससे प्रेम होता है उसकी बुराई नहीं दिखती और जिससे द्वेष होता है उसकी अच्छाई नहीं दिखती। यह अनुभव है? जिससे प्रेम होता है उसकी बुराई नहीं दिखती और जिससे द्वेष होता है उसकी अच्छाई नहीं दिखती और  थोड़ा सा अपने भीतर झांक कर देखो तुम्हारे लिए क्या दिखता है? बुराई दिखती है, दोष दिखते है या अच्छाई दिखती है, गुण दिखते है, इससे तुम्हारे संबंधों की वास्तविकता प्रकट होगी। अगर बुराई अधिक दिख रही है तो समझ लेना मेरे सम्बन्ध द्वेषपूर्ण है और अच्छाइयाँ दिख रही है तो तुम्हारे सम्बन्ध प्रेमपूर्ण है। लोगों के प्रेमपूर्ण संबंध नहीं होते ऐसा कहना तो ठीक नहीं है लेकिन प्रेमपूर्ण संबंध अत्यंत सीमित होते हैं और द्वेषपूर्ण, दुर्भावना युक्त संबंध अतिव्यापी होते है। इस द्वेषपूर्ण संबंध को बढ़ाने का मूल कारण अपने आप को ही सर्वस्व समझना, आत्मप्रशंसा की भूमिका में जीना, ऐसा व्यक्ति दूसरों की बढ़ाई को कभी देख नहीं सकता। संत कहते है – ‘इस दुर्वृत्ति से बाहर आओ, दूसरों के दोष देखने की जगह उनकी अच्छाई देखो उसके लिए तुम्हें अपनी सोच अच्छी रखनी होगी । जिसकी अच्छी सोच होगी वह बुराई में अच्छाई देखेंगे और जिनकी सोच खराब होगी उनको अच्छाई में भी बुराई दिखती है। हमारी दृष्टी पर अवलम्बित है।’

श्री कृष्ण चले जा रहे थे उनके साथ और भी लोग थे। एक मरा हुआ कुत्ता था। उसकी बत्तीसी बाहर दिख रही थी सब लोग उस कुत्ते के विभद्र शरीर को देखकर घृणा से भर रहे थे और श्री कृष्ण ने रंच मात्र ग्लानि रखे बिना यह कहा – देखो इस कुत्ते के दांत कितने सुंदर है। यह दृष्टि तुम्हारे भीतर है? बीभत्स और घिनौनी काया वाले कुत्ते को देख कर के भी उसे अनदेखा करना और उसके दांतो की स्थिर पंक्ति को मूल्यांकन देना, मूल्यांकन करना, मूल्य देना, महत्व देना सबके बस की बात नहीं है। यह उनकी सोच को बताता है। आप कहाँ  हो? जैसी तुम्हारी दृष्टि होती है, वैसा ही सब कुछ दिखाई पड़ता है। मेरे अंदर यदि दोष भरे होंगे तो मुझे सब दोषी, पापी, नीच और अधम दिखेंगे और मेरे आंखों में यदि पवित्रता होगी, तो हर प्राणी में मुझे वही पवित्रता दिखाई पड़ेगी। जो कुछ होगा, मेरी दृष्टि में जो है,  वही सब कुछ दिखेगा।

देखिए! रामायण की घटना सुनाता हूँ। जब रामायण पूर्ण हो गई, युद्ध पूरा हुआ और अयोध्या में साधुवाद समारोह, उस युद्ध में अपना योगदान देने वाले सभी बड़े-बड़े महारथियों का अभिनंदन समारोह था और उसमे सारे योद्धा अपनी-अपनी अनुभूतियां सुना रहे थे। इसी मध्य हनुमान जी का नंबर आया वे अपने शौर्य और पराक्रम की गाथा बढ़-चढ़कर के सुना रहे थे। बड़े जोश खरोश के साथ और अपनी विवार्ता के क्रम में जब अशोक वाटिका का प्रसंग आया तो उन्होंने अशोक वाटिका का वर्णन किया। क्या वाटिका थी ऐसी वाटिका  मैंने धरती पर कहीं नहीं देखी, अद्द्भूत वाटिका थी। उस वाटिका की एक विशेषता थी कि उसमें जितने फूल थे सबके सब लाल ही लाल थे। सारे फूल लाल ही लाल थे। मैंने पूरी वाटिका को तहस-नहस कर दिया। जब हनुमान जी ने कहा कि सारे फूल लाल लाल थे, तो सीताजी ने वही टोकते हुए कहा – हनुमान जी क्या बोलते हो आप तो थोड़े समय के लिए अशोक वाटिका गए मैं तो लंबे समय तक वहाँ रही मुझे तो वहाँ एक भी फूल लाल नहीं दिखा। सब के सब फूल सफेद थे। हनुमान जी ने कहा – माता मैं मिथ्या नहीं कहता सारे फूल लाल थे। मैं कैसे मानू सफेद अपने आँखों देखी बात। सीता जी ने कहा – नहीं हनुमान फूल सफेद थे। मामला उलझ गया। हनुमान जी इस बात पर डटे हैं कि फूल लाल और सीता जी इस बात पर दृढ़ है कि फूल सफेद। रामचंद्र जी को हस्तक्षेप करना पड़ा और कहा – भाइयों, हनुमान उलझो मत। तुम दोनों सही हो। सब अचम्भे में रह गए, प्रभु यह क्या होगा या तो लाल होंगे या सफेद होंगे दोनों सही कैसे? बोले – हनुमान बात ऐसी है कि सीता के मन में बड़ी सात्विकता भरी थी उसकी आँखों में सात्विकता भरी थी इसलिए उसे सारे फूल सफेद दिख रहे थे और तुम बड़े गुस्से में थे तुम्हारी आँखे गुस्से में लाल थी इसलिए सफेद फूल भी तुम्हें लाल दिखाई पड़ रहे थे। कहने का तात्पर्य यह है अगर हमारी आँखे लाल होगी तो सब हमें लाल दिखेगा और आँखे सफेद होगी तो सब हमें सफेद दिखेगा। अब देख लो जो तुम्हें दिख रहा है वह तुम्हारी आँखों के कारण दिख रहा है। तुम्हारी आँखे कैसी है यह तुम्हें देखना है। देखो दोष मत देखो, गुण देखो अपने आपको अच्छाइयों से भरो। दोष देखना है तो अपने देखो औरों के मत देखो। किसी ने बहुत अच्छी बात कही –

दोष पराए देखकर चलत हसंत, और खुद के याद ना आव हैं जिनका आदि ना अंत।’

खुद को देखो दूसरों के दोष देख कर तुम अपने चित्त को दूषित किए बिना नहीं रहोगे उससे तुम्हें कोई लाभ नहीं मिलने वाला इसलिए अपने दोष देखने की कोशिश करो, अपने दोषो और दुर्बलताओं को देखोगे तो उन्हें दूर करने की प्रेरणा पाओगे और दूसरों के दोषों को देखोगे तो उनकी अच्छाइयों का लाभ लेने से वंचित हो जाओगे। हमारे गुरुदेव ने एक बार बहुत अच्छी बात कही है। उन्होंने कहा – ‘कुटिया हो या महल उसमें प्रवेश करने का एक न एक द्वार जरूर होता है, कुटिया हो या महल उसमें प्रवेश करने का एक न एक द्वार जरूर होता है। कोई कितना भी पतित से पतित प्राणी क्यों ना हो उसमें एक ना एक गुण अवश्य होता है।’ गुणग्राही दृष्टि होनी चाहिए। व्यक्ति की अच्छाई को ग्रहण करना सीखो लेकिन लोगों की यह प्रवृत्ति है। अच्छाइयां देखने में नहीं आती एक चित्रकार था उसने एक सुंदर चित्र अंकित किया और उसे एक चौराहे पर टांग दिया कि इस चित्र में कोई कमी हो तो बताएं अगले दिन देखा तो पूरा चित्र ही विचित्र हो गया धब्बों में परिवर्तित हो गए। इतने सारे डॉट्स लोगो ने लगा दिए। चित्रकार को बड़ी पीड़ा हुई यह मामला क्या हो गया है इतना सुंदर चित्र और लोगों ने उसे एकदम डॉट लगा लगा के बदरंग कर दिया। उसने दोबारा एक और चित्र बनाया उस चित्र में लिखा इस चित्र में एक कमी रह गई कोई सुधार सके तो सुधार देना। इस चित्र में एक कमी रह गई है कोई सुधार सके तो सुधार दे। पूरा दिन हो गया हजारों लोगों ने उस चित्र को देखा लेकिन किसी को समझ में नहीं आया क्या कमी रही और हम उसे क्या सुधारे।

बात में आपसे केवल इतना कहता हूँ, दोष देखने वाले लोग बहुत मिलेंगे, दोष सुधारने वाला विरला मिलता है। यदि तुम पाना चाहते हो तो दोष को सुधारने की कला पाओ। दोष देखने या निकालने की प्रवृति से बाज आओ। देखो ही नहीं। हमें जो चाहिए हमें वह देखना चाहिए। बताओ तुम्हें दोष चाहिए या गुण? तो गुण देखो, दोष क्यों देखते हो? सड़क पर जाते हो, बाजार में जाते हो, आपको ज्वेलरी लेनी हो तो ग्रोसरी की दुकान में जाते हो क्या सीधे चाँदनी चौक की तरफ बढ़ते हो? क्या ज्वेलरी लेना है! चाँदनी चौक रतलाम का प्रसिद्ध है तो ज्वेलरी लेना हो तो सीधे तुम चाँदनी चौक की तरफ जाओगे ग्रोसरी की दुकान में तो नहीं जाओगे ना! साइन बोर्ड भी देखोगे तो किधर देखोगे कि भैया ज्वेलरी की दुकान कहा है, हमें वही जाना है और ज्वेलरी  की दुकान में भी जाओगे तो सोना लेना हो तो सोने के आभूषणों पर ध्यान देंगे, चांदी लेना है तो चांदी के आभूषणों पर ध्यान होगा, तुम्हे जो खरीदना है उस पर ध्यान होता है कि इधर-उधर ध्यान देते हैं! महाराज! इधर-उधर ध्यान क्यों दे जिसका कोई मतलब नहीं हम क्यों लें! है ना यह रोज़ की बात! बोलो तो! तुम्हें जो चाहिए होता है वही देखते हो तो तुम्हें अगर गुण चाहिए तो दोष क्यों देखते हो? दोष देखते हो इसका मतलब तुम दोष को ही अंदर से चाहते हो। गुण चाहिए तो गुण देखो, दोष देखकर के तो तुम अपने जीवन को दूषित करोगे। हस्तगत कुछ भी नहीं आएगा। कुछ भी नहीं होगा।

दो प्रकार की वृत्ति होती है। एक भँवरे की और एक मक्खी की। भँवर और मक्खी! भँवरा हमेशा फूल पर मंडराता है। आपने भँवरे को कभी गंदगी पर बैठे देखा? भँवरा हमेशा फूल पर मंडराता है। दूसरी तरफ मक्खी हो, मक्खी के सामने एक तरफ मिष्ठान की थाल रखो और दूसरी तरफ विष्ठा, तो मक्खी मिष्ठान की थाल की उपेक्षा करके विष्ठा पर बैठना ज्यादा पसंद करती, करती कि नहीं करती? करती है ना! बस मैं आपसे यही कहूंगा, भँवरे की तरह सद्गुणों का पराग चूँसो मक्खी की तरह विष्ठा का रस लेना बंद करो। सद्गुणों के मिष्टान का स्वाद लेने का प्रयास करो। तुम कहाँ  हो? भ्रमर हो या मक्खी? अपने भीतर देखना दूसरों को नापने की कोशिश मत करना। मेरी दृष्टि कहाँ  है, मेरी स्थिति क्या है, मैं भ्रमर हूँ या मक्खी यहमुझे तय करना है। दृष्टि को उदार बनाइए, बुराई में भी अच्छाई देखने की कोशिश कीजिए।

कोशिश कीजिए पॉजिटिव एटीट्यूड (Positive attitude) हर व्यक्ति के प्रति रखिए, हर घटना के प्रति रखिए, हर वस्तु के प्रति रखिए। एक बात आप लोगों को बुरी लगेगी लेकिन कहना जरूरी है जितने भी धर्मात्मा किस्म के लोग होते हैं, हाँ धर्मात्मा किस्म के बोल रहा हूँ, धर्मात्मा नहीं, धर्मात्मा किस्म के लोग, वह प्राय: दूसरों को बड़ी तुच्छ निगाह से देखते हैं। खासकर उन लोगों को जिनमें कोई दुर्बलता हो, दोष हो, यह ठीक नहीं। गुरुदेव की दृष्टि देखी अमरकंटक की बात है। अमरकंटक में एक सज्जन ने गुरुदेव से सवाल किया कि महाराज जी बहुत सारे लोग व्यसनों में फंसे रहते हैं, नंबर 2 का काम करते हैं फिर भी आप की सभा में आगे आ जाते हैं। व्यसनों में है और नंबर दो का काम करते हैं फिर भी आप की सभा में आगे आ करके बैठ जाते हैं। गुरुदेव ने जो जवाब दिया वह उनकी दृष्टि की विशालता की एक मिसाल बन गई। गुरु देव ने कहा – ‘मरीज अस्पताल में नहीं आएगा तो कहाँ  जाएगा!’ क्या बात है मरीज अस्पताल में नहीं आएगा तो कहाँ जाएगा तुम ऐसे लोग आते हो तो उनको सूँघते हो, है ना! सूँघते हो! अरे यह क्या हो गया, यह कैसे आगया, जबकि तुम्हारे हृदय में हर्ष होना चाहिए कि एक शराबी व्यक्ति भी, एक व्यसनी व्यक्ति भी गुरु शरण में आया है। यानि अब इसके सुधार का रास्ता प्रशस्त होने वाला है। है इतना बड़ा हृदय तुम्हारा? व्यक्ति को बदलो। पर तभी बदल पाओगे जब उसके प्रति तुम्हारे मन में प्रेम होगा, तुम्हारे दिल में जगह होगी। यदि घृणा और नफरत से भरोगे तो क्या होगा।

एक बार मुझसे शंका समाधान में सवाल किया गया कि महाराज कई लोग शराब पीते हैं और भगवान का अभिषेक करते हैं। शराब पीने वाले को अभिषेक करना चाहिए, उनको अभिषेक करने का अधिकार है? तुम लोगों से पूछूंगा, सवाल क्या है? जवाब तुम्हारा बताओ? शराब पीने वाले को अभिषेक करना चाहिए? बोलो नहीं करना चाहिए ना, जोर से बोलो, शराब पीने वाले को अभिषेक नहीं करना चाहिए। यही बोलते हो ना? बस मैं तुमसे इत्तपाक रखता हूँ। यह गलत है, अभिषेक करने वाले को शराब नहीं पीना चाहिए। पूरी बात करु अभी, अभिषेक करने वाले को शराब नहीं पीना चाहिए और शराब पीने वाले का अभिषेक नहीं शराब छुड़ाना चाहिए उसका अभिषेक मत छुड़ाओ उसके हृदय में अभिषेक का इतना महत्व जगा दो कि शराब से तौबा कर ले। तुम यहनेगेटिव विचार क्यों रखते हो कि यह शराब पीने वाला भगवान का अभिषेक करता है। यह पॉजिटिव क्यों नहीं सोचता कि शराब में मगन रहने वाला भी भगवान का अनुरागी बन गया है। इतना विशाल हृदय तुम्हारा? वह बदलेगा तो कहाँ बदलेगा? पर तुम्हें अच्छाई दिखे तब तो, बुराई ही दिखती है, व्यक्ति को बदलने के लिए विशाल हृदय चाहिए।

मैं एक स्थान पर था। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव होना था। उसकी बोली लगी अब बोली एक ऐसे युवक ने ली जो शराब पीता था, बोली खुली और खुसर पुसर शुरू, मुझे कुछ पता नहीं था। नया युवक था, बोली अच्छी राशि में ली, अब जैसी ही बोली हुईं, खुसर-पुसर शुरू, मुझे लगा मामला क्या हो गया, तो वहाँ  के मुखिया से पूछा की क्या मामला है? बोला- डेली ड्रिंकर (daily drinker) है। हमने मामले की गंभीरता को तुरंत समझा, हमने कहा-बोली तो खुल गई, अब कुछ मत बोलो। मंच पर उस लड़के को बुलाया, आशीर्वाद दिया हमने कहा – महा सौभाग्य उदय आया है तेरा, तुझे आज सौधर्म इंद्र का सुयोग मिला है वह पैसे के बल पर नहीं पुण्य के बल पर बना है। बड़ा सौभाग्य है तेरा पैसे वाले तो पीछे रह गए तेरा प्रबल पुण्य था तो तू आजा सौधर्म इंद्र बन गया। बस एक तेरे से मेरा कहना है, तू सौधर्म इंद्र बना है तो अब मन में ऐसा संकल्प बना लें कि मैं अब सचमुच का सौधर्म इंद्र बनूँगा और ऐसा कार्य करूँगा जिससे जीवन आगे बढे, पीछे ना हटे। भगवान के संस्कार करने का सौभाग्य पा रहा है अपने भीतर के संस्कार जगा ले और जो भी बुराइयां हैं आज छोड़ दें। आँखों में आँसू, श्रीफल चढाया और उसने कहा- महाराज आज से मैं अपनी सारी बुराइयों को त्यागता हूँ। और यह घटना 1996 की है और बढ़ते बढ़ते आज उस आदमी की स्थिति यह आ गई कि वह आज आदमी व्रती बन गया है। यह जीवन का परिवर्तन है। बताओ यदि मैं यह कहता ऐ शराबी को बोली नहीं दूंगा, सिद्धांतवादी बन जाता, थोङे आप लोग तालियां बजाते, क्या महाराज ने शराबी की बोली हटा दी पर बताओ मेरा यह स्टैंड (stand) सही होता? धर्म का दरवाजा सबके लिए खुला रहना चाहिए समझे बस यह तो सब के साथ लगेगा, अच्छाई बुराई जीवन में सबके साथ जुड़ी हुई है। उसे रोका नहीं जा सकता, व्यक्ति को सुधारो, गुरुदेव कहते हैं – ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ खोटा सिक्का भी काम में आता है दृष्टि रखो तुम्हारी दृष्टि होनी चाहिए, सही दृष्टि हो तो बंद पड़ी घड़ी से भी दिन में दो बार सही समय देख सकते हो, बोलो, बंद पड़ी घड़ी भी दिन में दो बार सही समय दिखाती है कि नहीं, दृष्टि होनी चाहिए और जिनकी दृष्टि नहीं वह चालू घड़ी में भी नहीं देख पाएंगे, किसी का तिरस्कार क्या! महिलाओं से में विशेष कहूंगा घर में फटा हुआ कपड़ा भी तुम इस भाव से संभाल कर रखते हो कि फर्श पोछने के काम में आएगा। संभाल के रखते हो कि नहीं? फटे हुए कपडे के लिए तुम्हारे घर में स्थान है। त्रुटिपूर्ण मनुष्य के लिए तुम्हारे हृदय में स्थान क्यों नहीं यह तुम्हें विचार करना है।

दोष देखने की प्रवृति से बाहर आइए पहली बात, चारों बात मुझे करनी है।  दोष लगाना, दोषारोपण करना, यह और गंदा काम है। पहले तो दोष देखना उसके बाद दोष लगा दिया, दोषारोपण कर दिया और जितने भी दोषारोपण होते हैं प्रायः मिथ्या दोषारोपण होते है। आजकल यह प्रवृत्तियां बहुत तेजी से बढ़ रही है। चाहे जिस पर कोई भी लांछन लगा दो उसके चरित्र की हत्या कर दो आपको तो केवल आरोप लगाना है, आपने आरोप लगाया, वह आदमी विक्टिम बन गया और वह अपराधी हो गया, सारी दुनिया की नजर में आपने उसके साथ ऐसा कर दिया। लेकिन कभी भूलना मत आज तुम किसी पर दोषारोपण करोगे वह दोषी सिद्ध हो या ना हो यह तो समय बताएगा पर तुमने अपने जीवन को तो दूषित कर ही दिया। सीता जी के वर्तमान जीवन को देख कर हम लोगों के मन में कितनी सहानुभूति होती है के एक निर्दोष पतिव्रता नारी होने के बाद भी उन पर लांछन लगा, क्यों लगा? कभी आपने सोचा क्यों लगा सीताजी पर लांछन! अतीत जीवन में एक मुनि महाराज अपने गृहस्थ अवस्था की बहन जो आज आर्यिका बनी हुई थी उससे बात कर रहे थे, मुनि महाराज और आर्यिका चंद क्षणों के लिए कोई वार्ता कर रहे थे, सीता के जीव ने मन में दुर्भावना कर उन पर लांछन लगा दिया। निर्दोष व्यक्ति पर लांछन लगाया, नतीजा निर्दोष होने पर भी लांछित हुई। यह उदाहरण हम सबके सामने है।

संकल्प लो, मैं कभी किसी पर दोषारोपण नहीं करूंगा, झूठा दोषारोपण तो कभी करूंगा ही नहीं। आप कहेंगे की महाराज कहीं कोई व्यक्ति गलती करता है तो उसकी गलती के बारे में नहीं बताए? अगर सही गलती हो तो बताइए और जहां आवश्यकता वहाँ  बताइए सार्वजनिक रूप से मत बताइए। कई बार ऐसा होता है अगर सामने वाले की गलती का एहसास उसे न कराए तो कई विषम स्थितियाँ निर्मित हो जाती है। वास्तव में उसकी गलती है तो सलीके से उसकी गलती को आप बताइए पर ढिंढोरा मत पीटीए, एकांत में बता दीजिए। दोष का शमन करके दोष का शोधन कीजिए। जैन शास्त्रों में इसको उपगूहन और स्थितिकरण के अंतर्गत लिया गया है। कहा गया है, दोष का शोधन करना पर दोष का ढिंढोरा मत पीटना, उसे ढाँक लेना। आप लोग ऐसे ही करते कि नहीं आपके घर परिवार में यदि किसी व्यक्ति से कोई गलती हो जाए तो पूरे गांव को बताते हो कि चुपचाप छुपा लेते हो क्यों इस से बदनामी होगी घर की। जैसे घर की बदनामी है, वैसे समाज की बदनामी है, वैसे ही धर्म की बदनामी है, वैसे संस्कृति की बदनामी है, वैसे ही राष्ट्र की बदनामी है। हमें उस से भी बचना चाहिए। आवश्यकता हो वहाँ  व्यक्ति के दोष का एहसास करा कर उसके दोष के शोधन और शमन की कोशिश करो लेकिन मिथ्या दोषारोपण तो मत करो।

कई बार लोग क्या करते हैं देखो कैसी प्रवृत्ति होती है एक जगह एक व्यक्ति से मूर्ति टूट गई मंदिर में दर्शन करते, अभिषेक करते, प्रक्षाल करते समय, मूर्ति टूट गई। उस समय संयोग था, कोई नहीं था, उसने चुपचाप से उसको सेट कर दिया। मूर्ति टूटी थी तो तुरंत के तुरंत सेट करने में ऐसा लगा नहीं की टूटी है। अब वह अपने दूसरे काम में लग गया थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति आया वह प्रक्षाल करने के क्रम में जैसे किया तो उसके हाथ से मूर्ति खंडित होकर नीचे गिर गई। खंडित तो थी। उसके मन में घोर पश्चाताप की मुझसे कितना बड़ा अपराध हो गया और उस व्यक्ति  यह कहने का साहस नहीं कर पाया की मूर्ति मुझसे टूटी , वह भी कहने लगा तुमसे अपराध हुआ तुमको प्रायश्चित लेना चाहिए। क्यों? केवल इस भाव से कि लोग मुझे दोषी ना कहे। खुद को कितना बड़ा अपराधी बना लिया उस व्यक्ति की गलती नहीं थी फिर भी उसने अपनी गलती स्वीकार की। भैया धोखे से हो गया, पता नहीं मैं तो प्रक्षाल कर रहा था। समाज की तरफ से भी कुछ नहीं कि भाई ऐसी प्राचीन मूर्ति के साथ ऐसा हो जाता है। सावधानी से काम करना चाहिए। उसकी आँखों से आँसू, खाना पीना छूट गया और यह आदमी कह रहा इस आदमी ने कर लिया, खुद का दोष दूसरों पर मंड रहा है। और वह उसके लिए आये, पूछा विधि विधान क्या है। संयोग से तीसरे दिन किसी ने सीसीटीवी खोल दिया और पोल खुल गई। पोल खुली तो जो वहाँ  के पदाधिकारी थे उन्होने उस को दिखाया क्लिप कि देख भैया टूटा तो तेरे से है उसके मन में तो इतनी ग्लानि और तेरे मन में रंचमात्र फर्क नहीं। तू दूसरे पर दोषारोपण कर रहा है। कैसी मन स्थिति है तेरी! तेरे को तो अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहिए। तुझसे दोहरा दोष हुआ है। पहला तो तेरे हाथ से भगवान की मूर्ति टूटी और दूसरा दूसरों पर दोषारोपण किया। तब उस आदमी को अपनी भूल का एहसास हुआ, आया प्रायश्चित लेने के लिए। पर बधुओं वह तो केवल एक उदाहरण है। आप अपने अंदर झांक के देखो, खुद की गलती होती है और दूसरों को आरोपी बनाते हो कि नहीं? कितनी बार ऐसा होता है। झूठा दोषारोपण ईर्ष्या के कारण, विद्वेष के कारण, संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण, संकुचित विचारधारा के कारण। यह सब मनुष्य की ओछेपन के उदाहरण है। इनसे बाहर आइए। अपने आप को इस से परिमुक्त कीजिए। ध्यान रखना कहा जाता है, किसी पर एक उंगली दिखाओगे तो बाकी चार तुम्हारी तरफ है, चार नहीं, तीन, अंगूठा उधर चला जाता है, बाकी तीन तुम्हारी तरफ है। अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। लोग दूसरों पर कीचड़ उछालने में बहुत माहिर हो गए और आजकल तो चाहे जिस पर चाहे जो कीचड़ उछालते रहता है। गंदगी फैलाते हैं। यह बहुत ही गलत परंपरा है। इससे व्यक्ति समाज, धर्म , संस्कृति सबका विनाश है। आप संकल्पित होइये कि मैं कभी किसी के ऊपर झूठा दोष नहीं लगाऊंगा। सच्चे के लिए अभी मैं आपको थोड़ा ढिल दे रहा हूँ। झूठा दोषारोपण नहीं करूंगा। कर सकते है आप लोग? बोलो! कर सकते हो कि नहीं? थोड़ा बताओ तो ऐसे बोल रहे जैसे नींद में हो, थोड़ा जोर से जोश में तो बोलो जैसे मैं बोल रहा हूँ। कर सकते हो? कर सकते हो ना? हाथ उठाओ! हाथ उठा लिया अब हाथ उठाए रखो एक मिनट (minute), सब लोग हाथ उठाए रखो, भैया कैमरा (camera) सब तरफ घुमा दिया करो फट से। उठाओ हाथ, मैं आपसे कह रहा हूँ, आप ने हाथ उठाया, उठाए रखो। अब कोई भी WhatsApp पर मैसेज आया जब तक सत्यापित नहीं हो आप फॉरवर्ड मत करना! अगर बिना सत्यापित किए तुमने फॉरवर्ड किया तो तुम्हारा यह हाथ उठाना झूठा हो गया और सत्य भी हो जाए तो जिससे धर्म की हानि हो, समाज की हानि हो, उस का शमन करना, फैलाना मत। हमारा काम सुगंध फैलाने का है। धुआँ उड़ाने का नहीं। सुगंध फैलाने का काम करो, धुआँ उड़ाने का नहीं। आजकल लोग धुआँ ज्यादा उड़ाते हैं। सुगंध फैलाना जानते ही नहीं, बदलाव आना चाहिए, इससे बहुत बड़ा नुकसान है। अच्छी सोच के धनी बनिए। कहीं हो तो किसी के ऊपर दोषारोपण लगाने की प्रवृति से बाज आइये तभी आप अपना जीवन अच्छा जी सकेंगे और आपके संबंध प्रेमपूर्ण बन सकेंगे। आप अपने जीवन में कुछ बेहतर ही घटित कर सकेंगे, अन्यथा हाथ में कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। अपने जीवन को उस अनुरूप देखने की कोशिश कीजिए तो मैं आपसे कह रहा था, अपने संबंधों को हम ठीक बनाना चाहते हैं, अपने जीवन को पवित्र बनाना चाहते हैं, आज से तय कीजिए, किसी पर दोष नहीं लगाएंगे। महाराज! कोई हमारा बुरा कह दे उसको भी बुरा ना कहे क्या? आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो जो तुम्हारे लिए बुरा कह रहा है या तुम्हारा बुरा कर रहा है यथार्थ है, वह तो निमित्त मात्र है। भीतर के जवाबदार तो तुम्हारे कर्म हैं।

अगर सच्चे अर्थों में किसी से बुराई लेनी है तो अपने कर्मों से लो जिसे तुम गले लगाए हो। उस कर्मों की सत्ता को उखाड़ फेंको। उससे लड़ो, यहतो निमित्त बन के आया है। यहआध्यात्मिक विचार तुम्हारे मन में आ जाए तो तुम कभी किसी को दोषी नहीं कहोगे। कोई कितना भी कहे ठीक है निमित्त बन कर के आया है पर जिनके अंदर की विचारधारा ही उल्टी होगी वह आखिर क्या कर पाएंगे। तो पहली बात दोष देखना, दूसरी बात दोष लगाना, तीसरी बात दोष ढांकना।

दोष देखना, दोष लगाना यह दोनों दुर्गुण है, देखना है तो उसी को गुण बना लो, खुद के दोषों को देखने का।

तीसरा दोष ढांकना जो एक बड़ा गुण है। दुष्प्रचार किसी का मत करो महाराज ऐसे दोष ढाँकते रहेंगे तो दोष फैलेंगे नहीं दोष फैलाने की बात मै नहीं कर रहा हूँ दोष ढांकने की बात कर रहा हूं एक बात ध्यान रखना।

तुम कहते हो दोष ढांकने से दोष फैलेंगे ही नहीं तो क्या ढिंढोरा पीटने से दोष मिट जाएंगे? ढिंढोरा पीटने से कभी दोष मिटने वाले नहीं है। तो किसी व्यक्ति को सुधारना है तो उसके दोषों का ढिंढोरा पीट कर नहीं सुधारा जा सकता उसके दोषों का एहसास कराते हुए प्रेमपूर्ण व्यवहार से उसे आसानी से सुधारा जा सकता है। कई चीजें ऐसी होती है जिससे हमारा गौरव और गरिमा नष्ट होती है। तो हमें उसे सप्रेस्स (supress) करना पड़ता है, दबाना पड़ता है, ढांकना पड़ता है। जीवन व्यवहार में भी हमें ऐसा करना चाहिए हमारे यहाँ एक शब्द आता है उपगूहन धर्मात्मा व्यक्ति से कोई गलती हो जाए तो उसे प्रचारित मत करो हो सकता कुछ लोग मेरे इस विचार से असहमत होंगे लेकिन अगर गंभीरता से विचार किया जाए तो इससे अच्छा विचार कोई नहीं क्योंकि यह मेरे विचार नहीं यह भगवान के विचार है जो उन्हें हम सब के लिए दिया है कि अगर तुम अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल रखना चाहते हो तो किसी धर्मी पहले तो धर्मी को कोई चूक करना नहीं चाहिए और यदि चूक हो जाए तो उसका शमन करना चाहिए, उसका दुष्प्रचार कतई नहीं करना चाहिए देखिए हमारी दृष्टि यदि सकारात्मक होती है और हम दोषों को ढाँकते हैं तो कितना बड़ा बदलाव घटित कर सकते है ।

आचार्य समंतभद्र महाराज ने तो जिनदत्त सेठ का उदाहरण दिया है, यह तो एक पौराणिक उदहारण है लेकिन एक कहानी मैं आज आप सबको सुनाना चाह रहा हूं शायद आप लोगों ने भी कोर्स में पड़ी होगी ‘हार की जीत”, याद आ गया हिंदी साहित्य में जब हम लोग पांचवी क्लास में पढ़ते थे तब पढ़ाई गई आपने उस कहानी को तो खूब पढ़ा होगा लेकिन आज मेरे संदर्भ में थोड़ा सुनने की कोशिश कीजिए, बाबा भारती का एक प्राणप्रिय घोड़ा था सुल्तान बाबा भारती अपने सुल्तान से बेहद प्यार किया करते थे बड़ा उत्तम नस्ल का घोड़ा था उस इलाके में एक डाकू था खड़क सिंह उस की कुदृष्टि सुल्तान पर पड़ी सुल्तान को हड़पना चाहता था लेकिन साधु की कुटिया में डाका डालने का मन नहीं बना पाया और उसने एक रूप रचा 1 दिन बाबा भारती अपने घोड़े पर सवार होकर चले जा रहे थे रास्ते में एक अपाहिज व्यक्ति करह पूर्ण आवाज सुनाई पड़ी करुणा शील बाबा भारती ने अपने घोड़े को रोका घोड़े से उतरकर उसका हालचाल पूछा उस अपाहिज ने कहा-मेरे कमर में बड़ा दर्द है मैं चलने में अशक्त हूं अमुक गांव तक जाना है यदि मुझे कोई सहारा मिल जाए तो बड़ी कृपा होगी । बाबा भारती ने कहा, कोई बात नहीं मैं तुम्हे घोड़े पर बैठाता हूँ, तुम घोड़े पर बैठो मैं पैदल चलता हूं पास में ही तुम्हारा गांव है, वहाँ  तक मैं छोड़ दूंगा । बाबा भारती ने खुद अपने गोद में उठाकर उसे घोड़ेपर बिठाया और खुद घोड़े की लगाम पकड़ कर के पैदल चलना शुरू कर दिया। थोड़ी ही दूर आगे गया और बाबा भारती के हाथ में झटका सा लगा और लगाम उसके हाथ से छूटकर सवार के हाथ में आ गई और अगले ही पल घोड़ा आसमान से बातें करने लगा। बाबा भारती ने जैसे ही यह दृश्य देखा एकदम भौचक्का रह गया, यह क्या अरे भाई! मेरा घोड़ा कहाँ ले जा रहे हो घोड़ा कहाँ ले जा रहे हो उस सवार ने पीछे मुड़कर के देखा और कहा बाबा भारती यह कोई अपाहिज नहीं यह डाकू खड़क सिंह है और यह घोड़ा अब तुम्हें दोबारा नहीं मिलेगा यह घोड़ा अब मेरा हो गया तुम्हे नहीं मिलेगा । बाबा भारती एक पल के लिए स्तब्ध रह गए लेकिन अगले ही पल अपने आप को संभालते हुए कहा खड़क सिंघ घोड़ा तुम्हें ले जाना है , ले जाओ । मैं तुम्हें इसे कभी नहीं मांगूंगा , सुल्तान को ले जाना चाहते हो तुम ले जाओ अब मैं तुमसे कभी नहीं मांगूंगा लेकिन मेरी एक प्रार्थना सुनते जाओ, उसने घोड़े को पलभर रोकते हुए कहा कि जो भी प्रार्थना है करो लेकिन घोड़ा तो अब नहीं लौटेगा बोला मैं घोड़ा नहीं मांगता बस मेरी इतनी प्रार्थना है कि इस घटना का जिक्र तुम किसी से मत करना अन्यथा लोगों का जरुरतमंदों से विश्वास उठ जाएगा। इतना कहकर बाबा भारती उलटे पांव लौट आए भारी मन से लौट आए सुल्तान को खोने का बड़ा दर्द था मन बहुत भारी था इधर खड़क सिंघ के कानों में यह वाक्य गूंजते रहे थे, घोड़ा ले जाना है तो ले जाना पर इस घटना का जिक्र किसी से मत करना अन्यथा लोगों का जरुरतमंदों से विश्वास उठ जाएगा ।लोगों का जरुरतमंदों से विश्वास उठ जाएगा यहशब्द खड़क सिंग के कान में बार-बार गूंजते थे, खड़क सिंग का हृदय परिवर्तित हो गया कि मैंने कितना बड़ा अपराध किया इतने बड़े संत के घोड़े को मैंने इस तरह से चुराया मुझे नहीं चुराना चाहिए । वह घोड़ा पा करके बेचैन हो गया, एक घोड़ा खोकर के नींद खो रहे थे और एक दूसरा घोड़ा पाकर के बेचैन हो गया । उसे नींद नहीं आ रही थी, आधी रात में उठा घोड़ा को उठाया और बाबा भारती की कुटिया के बाहर उसे बांध कर के चला गया एक चिट्ठी लिख दी कि बाबा तुम्हारे एक वाक्य ने मेरा हृदय परिवर्तित कर दिया मुझसे अपराध हुआ है मुझे क्षमा करो और आज के बाद मैं संकल्प लेता हूं कभी किसी के साथ ऐसा छल व्यवहार नहीं करूंगा । आपको मुझसे तकलीफ हुई उसके लिए मैं पुनः पुनः क्षमा प्रार्थी हूँ। बंधुओ यह घटना आप लोगों ने भी पढ़ी और सुनी होगी काश हम प्रेरणा ले बाबा भारती ने अगर FIR लॉन्च (launch) की होती तो घोड़ा भी जाता और चैन भी जाती लेकिन बाबा भारती के एक वाक्य ने खड़क सिंग जैसे व्यक्ति के हृदय को परिवर्तित कर दिया किसी को बदलना चाहते हो तो प्यार से ही बदला जा सकता है नफरत से तो केवल नफरत पैदा होती है तो दोष को ढाँकिए महाराज दोषों के प्रति जागरूक ना करें? दोषों  के प्रति जागरुक कीजिए पर किसी व्यक्ति विशेष के दोषों का ढिंढोरा मत पीटिये ।

एक बात सदैव ध्यान रखना बुराई सदैव अच्छाई की ओट में पलती है बुराई अच्छाई की ओट में पलती है बहुत बार ऐसा होता है कि लोग अच्छाई का चोला ओढ़कर के बुराइयों की पुष्टि करते रहते है लेकिन उससे बुराई नहीं अच्छाई बदनाम होती है फिर सब को एक ही चश्मे से सब को देखना शुरु कर देते हैं एक ही तराजू पर सब को तौलना शुरू कर देते हैं इससे बहुत बड़ा नुकसान होता है हमें बुरे की और बुराई की चिकित्सा करनी चाहिए लेकिन इस तरीके से की उसके प्रभाव में अच्छाई ना आए। अच्छाई का मार्ग खुला रहे, यह प्रयास हो तो दोष  शमन का गुण अपने भीतर विकसित कीजिए तब है दोष शोधन, पर के दोशों का शमन करना खुद के नहीं खुद के दोषों का शोधन करो अपने दोषों को दबाओगे तो दबें रह जाएंगे पहले अपने दोषों को देखो और उनका शोधन करने की कोशिश करो मार्ग में लगो, अपनी निंदा करो, अपनी गर्हा करो और किसी दूसरे में कोई दोष दिखते है कोई कमी दिखती हैं तो प्रेम पूर्वक उसके दिल में स्थान जगाओ, उसे संबोधो उसका ह्रदय परिवर्तित करने की कोशिश करो जिससे कि उसके दोषों का शमन हो सके, शोधन हो सके और वह अपने जीवन को पवित्र बना सके, ऐसे गुण अगर अपने अंतर में विकसित करेंगे तो निश्चित वह हमारी एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी । उस उपलब्धि का लाभ लें और अपने जीवन में स्थाई परिवर्तन करने की भूमिका बनाए , इसी भाव के साथ आज ‘द’ की  बात हुई है तो बस हम दोष और दुर्बलता से अपने आप को दूर करेंगे तभी हमारे दुर्गुण मिटेंगे और हम अपने दुखों से मुक्त हो सकेंगे सबके हृदय में यह बात आए और इन पंक्तियों को बार-बार चरितार्थ करें गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे तो हमारा जीवन सार्थक होगा ।

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