क्या जैनों को जैन मन्दिरों में नौकरी करने से निर्माल्य का दोष लगता है?

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शंका

क्या जैनों को जैन मन्दिरों में नौकरी करने से निर्माल्य का दोष लगता है और लगता है, तो उसका निवारण क्या है?

समाधान

निर्माल्य तो निर्माल्य है लेकिन मन्दिरों का रख-रखाव व्यवस्थाएँ बनाना भी हम सबकी जिम्मेदारी है। उसके लिए एक व्यवस्था बनानी चाहिये, मैं पूरे देश के लोगों से कहना चाहता हूँ जो इस कार्यक्रम से जुड़े हैं और जो लोग विभिन्न मन्दिरों के रख-रखाव से जुड़े हैं, आप अपने मन्दिर में एक ऐसी व्यवस्था करें कि मन्दिर के मदों में, जो अलग-अलग दान का मद आता है, उसमें प्रबन्ध मद रखिए। प्रबन्ध मद में जो भी पैसा आए उससे सैलरी बांटिए, मैनेजमेंट के लिए होना चाहिये। एक गुल्लक रखिए अलग से मन्दिर में, जिसमें लिखा जाए प्रबंध। एक गुल्लक रखा जाए जिसमें लिखा जाए प्रभावना। प्रभावना मद के पैसे से जो मुनिजन आते हैं, आप बसें छोड़ते हैं, खाने-पीने की आपस में व्यवस्था करते हैं वह कीजिए क्योंकि यह भी समाज की एक आवश्यकता है requirement है और प्रबन्ध मद का जो पैसा है उसको मैनेजमेंट में खर्च कीजिए। आप मन्दिर के गुल्लक में दान देते है, आपका पैसा गुल्लक में जाता है, बैंक बैलेंस बढ़ जाता है और निर्माल्य हो जाता है। मन्दिरों का, तीर्थों का प्रबन्ध सुचारू नहीं होगा तो आप अपना धर्म ध्यान कैसे करेंगे? इसलिए मन्दिर में आप अगर सच्चा पुण्य लाभ लेना चाहते हैं तो अपना दान का बहुभाग प्रबन्ध में दीजिए ताकि मन्दिर चकाचक रहे, मैनेजमेंट अच्छा बना रहे। आपको दर्शन वन्दन पूजन में आनन्द आए और उस प्रबन्ध मद को इस तरह के कार्यों में खर्च करने में कोई भी दोष नहीं लगता, अन्यथा देवद्रव्य के रूप में जो द्रव्य है उसे देने से निर्माल्य का दोष लगेगा ही, इसलिए इसकी शुरुआत होनी चाहिए। 

मैंने पहले भी कहा था लेकिन अभी तक किसी ने मुझसे नहीं कहा कि महाराज हमने अपने मन्दिर में इसकी शुरुआत कर दी। आज फिर से इस बात को मैं कह रहा हूँ, मैं चाहूँगा कि मुझे इसकी सूचना मिले और अगर मंच से घोषणा की जाए कि इन-इन मन्दिरों में प्रबंधन की शुरुआत अपने मन्दिरों में कर दी है, तो समाज में एक बहुत अच्छी पहल होगी और इस दुविधा से हमारे साधर्मी बन्धु मुक्त हो जाएँगे।

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