मंदिर के बाहर आते ही भावों पर नियंत्रण क्यों नहीं रहता?

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शंका

धर्म के माध्यम से हम धैर्य और करुणा को कैसे संरक्षित करें? कई बार देखा है कि मन्दिर के अन्दर तो हम अपने आपको बहुत नियंत्रण में रखते हैं लेकिन मन्दिर के बाहर आने के बाद में हम लोगों में आक्रोश आ जाता है, तो उसको कैसे नियंत्रित करें?

समाधान

सच्चे अर्थों में जो धार्मिक व्यक्ति होता है वो बहुत संवेदनशील होता है, उसके ह्रदय में करुणा भी होती है और उसका व्यहार बहुत विनम्र होता है। लेकिन आजकल बहुत से लोग तो ऐसे होते हैं जो धर्म की क्रिया को ही धर्म मान लेते हैं, धर्म के आन्तरिक पक्ष को नहीं देखते। ऐसे लोगों के जीवन में ऐसा होता है कि वे मन्दिर में तो कुछ और होते हैं और बाहर आते ही उनका रूप कुछ और हो जाता है। इसमें कमी धर्म की नहीं है, कमी उस व्यक्ति की है। 

देखो! आध्यात्मिक चेतना की जागृति के अभाव में व्यक्ति कितना भी धर्म करे तो उसके ऊपर उसका असर नहीं पड़ता। व्यक्ति धर्म और धर्म के प्रयोजन को समझेगा तो धर्म से जुड़े हुए सारे गुण स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाते हैं। और जो व्यक्ति धर्म के प्रयोजन को नहीं समझ पाता उसके जीवन में वह गुण प्रकट नहीं हो पाते। तो हमें समझना चाहिए कि धर्म हम क्यों करें, हमें धर्म के आतंरिक रूप को समझने की जरूरत है, उसे समझेंगे तो आपको बहुत बदलाव अनुभव होगा। आपको ऐसे लोग भी मिले होंगे, ऐसे लोगों को भी आपने देखा होगा जो धार्मिक होने के साथ-साथ बड़े शालीन, विनम्र और करुणाशील भी है हमें उन्हें अपना आदर्श बनाना चाहिए।

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