विधवा नारी की मंगल कार्यो में उपेक्षा क्यों?

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शंका

जन्म का समय निश्चित होता है उसी प्रकार मरण का समय भी निश्चित होता है। पति की दीर्घ आयु के लिए पत्नी उपवास व अनेक मंगल कामनाएँ करती है, तन, मन व धन पति पर समर्पित करती है। परन्तु पति की आयु से लड़ने में सार्थक नहीं हो पाती है, क्यों? विधुर अशुभ नहीं कहलाता, लेकिन विधवा अशुभ क्यों कहलाती है?

समाधान

निश्चित एक पत्नी का अपने पति के ऊपर जो प्रेम होता है वह अतुलनीय होता है और वो सब के मंगल की कामना करती है। हर परम्परा में पति के मंगल के लिए अक्सर पत्नियाँ व्रत उपवास करती है। आपके यहाँ ‘सुहाग दशमी’ है, अन्य परम्परा में ’करवाचौथ’ है। 

मैं समझता हूँ कि जितनी आवश्यकता एक स्त्री को अपने पति की है शायद उससे ज़्यादा आवश्यकता पति को अपनी पत्नी की है। मेरा अनुभव ये बताता है कि पति के वियोग को तो पत्नी फिर भी झेल लेती है और जिनकी पत्नी असमय दुनियाँ छोड़ देती है उस पति का हाल बेहाल हो जाता है। लेकिन ये कैसी विचित्रता है कि सुहाग दशमी केवल स्त्रियाँ करती हैं। पुरुष लोग कम से कम सौभाग्य एकादशी कर लें! करवाचौथ स्त्रियाँ करती है, तो मीठी पंचमी पुरुष कर लें! नहीं करते हैं। 

पर इस तरह के व्रत उपवास से किसी के जन्म और मरण को नहीं टाला जा सकता है। 

मणि-मन्त्र-तन्त्र बहु होई, मरते न बचावे कोई

फिर भी ये भावना और समर्पण की अभिव्यक्ति है। इसका सम्मान करना चाहिए। हर एक पुरुष को अपने आप को सौभाग्यशाली मानना चाहिए जिसकी घरवाली उसके मंगल के लिए सुहाग दशमी का व्रत कर रही है। कम से कम इतना तो करो कि वो सुहाग दशमी का उपवास कर रही है, तो पारना अपने हाथ से करा दो। इतना cooperate तो आप करो। 

रहा सवाल जन्म-मरण के रोकने का, तो ये रोक पाना किसी के बस का नहीं है। फिर भी ये पुण्यवर्धन की क्रिया है। 

दूसरा सवाल कि विधुर को कोई भी अशुभ दृष्टि से नहीं देखता पर विधवा को अमंगल की दृष्टि से क्यों देखा जाता है? बन्धुओं! ये समाज का एकदम नकारात्मक दृष्टिकोण है। मैं इसे कतई नहीं मानता बल्कि, मुझसे पूछो तो जैसा विधुर है वैसी ही विधवा है। अगर कोई विधवा, विधवा होने के उपरान्त शील, संयम सदाचार का संकल्प लेकर के आगे बढ़ रही है, तो उसे अमंगल की दृष्टि से देखने की जगह ब्रह्मचारिणी की दृष्टि से देखना चाहिए, सदाचारिणी की दृष्टि से देखना चाहिए। उसे सम्मान देना चाहिए। समाज में उल्टा हो रहा है। एक बहन है जिसका पति असमय में चला गया। उसने पुनर्विवाह कर लिया। आहार देना चाहती है। लेकिन हम लोग ऐसी स्त्रियों से आहार नहीं लेते। अब ये मत पूछना कि ‘क्यों नहीं लेते?’ आगम में ऐसी व्यवस्था नहीं है इसलिए नहीं लेते हैं। अब इसमें तर्क मत लगाना। हम लोग भी आगम से बँधे हैं और गुरू आज्ञा भी नहीं है। तो उस महिला ने जो कहा वो बात सोचने लायक थी। उसने कहा कि ‘महाराज जी! मेरी शादी की इच्छा नहीं थी लेकिन मैं हर जगह अपने आप को असुरक्षित महसूस करती थी। और जहाँ भी जाती, अमंगल की दृष्टि से देखी जाती थी। तो मैंने सोचा कि इस तरह फिरने से अच्छा किसी एक से बंध जाऊँ। कम से कम सुरक्षित तो रहूँगी और कोई मुझे अमंगल की दृष्टि से तो नहीं देखेगा।’ हमने कहा-ऐसी सोच ही अमंगल है। पुनर्विवाह कर लिया उसको तो आप सम्मान दे रहे हो और जो शील, संयम और सदाचार के साथ जीवन जी रही है उसको अमंगल सोच रहे हो। गलत बात है।

हमारे सानिध्य में एक जगह विधान हुआ उसका ध्वजारोहण कराना था। एक बहिन जी ने उसका ध्वजारोहण किया, जिसके पति नहीं थे; लेकिन धर्मात्मा थी, व्रती थी। ध्वजारोहण किया तो हमारे समाज के ठेकेदारों ने कह दिया विधवा से ध्वजारोहण कैसे करा लिया? हमने कहा कि “तुम्हें किसने लाइसेंस दिया किसी को परमिट देने के लिए?” उसने किया तो अच्छा है। वो सदाचारी है। व्रती के हाथों ध्वजारोहण कराने से तो और मंगल होगा। शास्त्रों में ऐसा कहीं नहीं कहा! ये लोक दृष्टि है। और ये बहुत विकृत मध्ययुगीन भारत का एक उदाहरण है। ऐसी मानसिकता कभी नहीं होनी चाहिए। अगर कोई भी है, सदाचार, शील, संयम से संयुक्त है, तो उसको सदैव आदर देना चाहिए, सम्मान देना चाहिए, बल्कि ऐसा सम्मान देना चाहिए कि किसी स्त्री के साथ ऐसी घटना घटे तो उसके सम्मान पूर्ण जीवन को देखकर उसके मन को भी लगे कि ‘दूसरी शादी का विचार मन में लाकर कीचड़ में पाँव रखने से तो अच्छा है मैं भी शील व्रत, संयम का पालन करते हुए आदर्श जीवन जी सकूँ और अपने जीवन का उद्धार कर सकूँ।’ ऐसा सम्मानपूर्ण उदाहरण हम सब को प्रस्तुत करना चाहिए।

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