जैन मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने और बाँटने की परम्परा क्यों नहीं?

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शंका

अन्य मन्दिरों में जो प्रसाद चढ़ता है, वो जिन मन्दिर में क्यों नहीं चढ़ता?

समाधान

प्रसाद क्या है? ये अलग-अलग जो मान्यताएँ हैं, उसका ही प्रतीक है। अन्य मतों में ईश्वर को सगुण रूप में माना जाता है और ये माना जाता है कि ईश्वर जो हैं वो समय-समय पर विभिन्न रूपों में आते हैं और उन रूप के अनुसार ईश्वर भोग लेते हैं। 

प्रसाद किस को बोलते हैं? अपने ईष्ट को कुछ दे दें और उसमें से जो बचे वो प्रसाद है। अन्य मत के अनुसार जितने भी भगवान हैं, वो भोग स्वीकार करते हैं क्योंकि वो प्राणों को धारण भी करते हैं। दुनिया में आते हैं, तो भोग स्वीकार करते हैं और भोग लेने के उपरान्त जो बचा हुआ होता है, उसे उनके भक्तगण प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। जैन धर्म के अनुसार जो भगवान होते हैं, वो कृत्य, अकृत्य, परमकृत्य, भूख-प्यास की बाधाओं से ऊपर उठ जाते हैं। उनको न भूख लगती है और न ही प्यास लगती है। वो प्राण अतीत हो जाते हैं, सिद्धालय में पहुँच जाते हैं, इसलिए उनको भोग नहीं लगता है। उनको भूख लगे तो ही तो हम उनको भोग लगाएँ और जब भोग ही नहीं लगाएँ, तो प्रसाद कहाँ से आएगा। इसलिए जैन मन्दिर में प्रसाद की व्यवस्था नहीं है। 

अन्य मन्दिरों में प्रसाद की व्यवस्था है क्योंकि वहाँ भगवान को भोग लगाया जाता है। अपने यहाँ भगवान को भोग नहीं लगाते अपितु भगवान के चरणों में अपने भोगों का त्याग किया जाता है। इसलिए जो चीज हम भगवान के चरणों में चढ़ाते हैं, उसको हम लोग ‘निर्माल्य’ बोलते हैं और वह सेवन करने योग्य नहीं रहता है और उसको हम लेते भी नहीं है। हम भगवान के चरणों में त्याग की भावना से जाते हैं, इसलिए जैन मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने की और प्रसाद बाँटने की परम्परा नहीं है।

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