पंचम काल के अंत में जैन धर्म का दक्षिण में होना क्यों कहा गया?

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शंका

शास्त्रों में कहा गया है कि काल के अन्त में दक्षिण में ही धर्म टिकेगा। ऐसा आचार्यों ने किस अपेक्षा से कहा है?

समाधान

भरत चक्रवर्ती के १५ सपनों में एक सपना आया कि एक तालाब है जो मध्य में सूखा हुआ है, उसके चारों तरफ कमल खिले हुए है और उस स्वप्न के फल के रूप में ऐसा बताया कि ‘जहाँ धर्म की मूल प्रवृत्ति हुई, तीर्थंकरों का उद्भाव हुआ है वहाँ धर्म नहीं रहेगा और पंचम काल में सुदूर स्थानों में धर्म टिकेगा। 

आपने पूछा कि ऐसा किस अपेक्षा से कहा है? कई बार लोग बोलते हैं कि ‘महाराज! दक्षिण में जैन लोग बहुत हैं लेकिन वहाँ लोगों के अन्दर धर्म के नाम पर अज्ञान बहुत ज़्यादा है, तो वहाँ धर्म कैसे टिकेगा?’ आज धर्म के नाम पर अज्ञान कुछ क्षेत्रों में दिखता है लेकिन जब हम दक्षिण भारत के इतिहास को जैन परम्परा के इतिहास से जोड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि जैन धर्म के उत्थान में दक्षिण भारत का उत्तर भारत से कहीं ज़्यादा योगदान है। दक्षिण भारत मुनियों और आचार्यों से समृद्ध रहा। दक्षिण भारत के राजा-रजवाड़ों ने जैन धर्म को खूब संरक्षण दिया इसलिए जैन धर्म की प्रभावना दक्षिण में पिछले ४-५ सौ वर्ष पहले खूब रही और बाद में भी रही। इन दिनों कुछ परिवर्तन आया है लेकिन ये उतार-चढ़ाव लगा रहता है। 

दक्षिण का तात्पर्य सुदूर दक्षिण से न लेकर तीर्थंकरों की जन्म भूमियों से दक्षिण यह लेना ज़्यादा अच्छा है। तीर्थंकरों के जन्म उत्तर में हुए हैं तो उनसे जितने दक्षिण को प्राप्त हैं सब आ जायेंगे। इसमें मध्यप्रदेश आदि सब स्थान आ सकते हैं ऐसा जोड़ देना चाहिए। धर्म का प्रवर्तन होता रहेगा। ये भी मानकर के चलना चाहिए कि जो बात बताई वह पंचम काल के लिए औसत बताई है। इसमें हमेशा आरोह और अवरोह होता रहेगा। 

आप लोग कहते हो कि दक्षिण में कई लोगों में अज्ञान है और धर्म के नाम पर मिथ्यात्व का पोषण करते हैं। लेकिन मैंने देखा कि इन दिनों दक्षिण भारत के लोगों में धर्म के प्रति जाग्रति में जो लहर आई है वह बहुत प्रशंसनीय है। आज केवल महाराष्ट्र में सोलापुर, सामिरी और बेलगाँव तथा कर्नाटक के तीन जिलों में १५० से ज़्यादा लोग व्रती बन गये, प्रतिमाधारी बन गये। ये कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। वहाँ धर्म के आविर्भाव का ये फर्क है। तो लोगों में परिवर्तन भी आ रहा है। ये परिवर्तन समय काल के हिसाब से होता रहता है।

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