श्रावक का धर्म-ध्यान गज स्नान जैसा क्यों है?

150 150 admin
शंका

श्रावक जितना भी धर्म-ध्यान करे उसका स्नान गज-स्नान समान बताया गया है लेकिन क्या अव्रती का भी वैसा ही है?

समाधान

श्रावक कितना भी धर्म-ध्यान करे उसका धर्म-ध्यान गज स्नान है; अव्रती के लिए ऐसा कहा गया है, देशव्रती के लिए नहीं है। भगवती आराधना में कहा है कि सम्मादिष्ठिस् अविर्दष्य न तवो महागुनोहोदि, होदि अत्थिनानम ……..

जो अविरत सम्यक् दृष्टि है वह कितनी भी तपस्या करें महानगुणकारी नहीं है, वह हाथी के स्नान के समान है। दूसरा है कि पुराने समय में लकड़ी में छेद करने लिए बर्मा-कमानी होती थी। बीच में रस्सी के फंदे से उसे फँसाया जाता था और कमानी से उसे खींचते थे। एक तरफ की रस्सी खिंची तो दूसरी तरफ की रस्सी उधड़ी और एक तरफ की उधड़ी तो दूसरे तरफ की खिंची। मतलब जितना झड़ाया उतना ही लगाया। असंयमी व्यक्ति के जीवन में पाप की बहुलता होती है। पाप बाहुल्य होने को कारण वो जितना निर्जरा करते हैं उतना ही बन्ध कर लेते हैं। अथवा प्रवृत्तिमूलक जीवन होने के कारण वे एक तरफ निर्जरा करते हैं दूसरी तरफ पुण्य की शुभ क्रियाएँ करें तो पुण्य का बन्ध कर लेते हैं। पर व्रती श्रावक के लिये आगम ऐसा बताता है कि व्रती श्रावक को प्रति समय असंख्यात गुण श्रेणी रूप कर्मों की निर्जरा होती है, चाहे वह देशव्रती ही क्यों न हो। गुण श्रेणी निर्जरा महान निर्जरा होती है जो प्रति पल पुंज के पुंज कर्मों की निर्जरा कराती है। अव्रती की तुलना में व्रती अच्छा है लेकिन व्रती को व्रती बनकर ही सन्तोष नहीं रखना चाहिए, महाव्रती बनने का भाव बनाये रखना चाहिए। तब ही वह अपना पर्याप्त पुरूषार्थ कर पायेगा।

Share

Leave a Reply