सम्पन्न होने के बाद जीवन में अकेलापन क्यों बढ़ता है?

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शंका

ज्यों-ज्यों हमारी संपन्नता बढ़ रही है, हम और अकेलापन क्यों महसूस करते हैं, जबकि हम बचपन में आनन्द से रहते थे?

समाधान

यह सब के लिए विचारणीय है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम जड़ धन को मूल्य देने लगे हैं, जीवन धन को भूलने लगे हैं। आज के अर्थ प्रधान युग में सब तरफ आर्थिक प्रतिस्पर्धा चल रही है और सारे सामाजिक मूल्य अर्थ प्रधान हो गए हैं, मनुष्य सारी जिंदगी उनकी तरफ दौड़ता है। जब उनकी तरफ दौड़ेगा तो अपनों से दूर होना होगा। अगर हम ने पैसे को प्रमुखता देने की जगह अपने संबंधों को प्रमुखता दी होती तो ऐसा कुछ नहीं होता। 

एक सेठ था, उसके दो बेटे थे। उत्तराधिकारी के चुनाव का सवाल था, उसने दोनों को ५० – ५० हजार रूपये दिए और कहा कि ‘मैं नगर के दोनों और जाता हूँ, मुझे मीलों जाना-आना पड़ता है, कई बार रात्रि भी रुकना पड़ता है। तुम एक काम करो, रात्रि विश्राम के लिए दोनों और सौ-सौ मील तक हर १० मील पर हमारे विश्राम के लायक स्थान बना दो। एक को एक दिशा दी गई दूसरे को दूसरी दिशा दी गई। ₹५०,००० में १०० मील के अन्दर १० मकान बनाना है, कहाँ सम्भव है? एक छोटी सी कुटिया भी नहीं हो पाएगी लेकिन पहला बड़ा कैलकुलेटिव था- ‘पिता जी ने कहा है, तो चलो ठीक है’; उसने १० जगह पर छोटी-छोटी सी पाँच हजार के खर्चे पर एक छोटा सा कॉटेज टाइप का बना दिया। पिता ने देखा कि उसने घास-फूस की झोपड़ीयाँ बना दी हैं। बोले- ‘यह मेरे रहने लायक कहाँ, मैं यहाँ कहाँ रहूँगा?’ बीटा बोल – ‘५०,००० में इससे अच्छा और क्या होगा?’ दूसरे से पूछा ‘तुमने क्या बनाया?’ बोला ‘पिताजी चलिए, आपने कहा था- रास्ते में ऐसी व्यवस्था बना दो जो हमारे रुकने के काम में आए- आप चिन्ता मत करिए।’ ‘मकान कहाँ है?’ ‘मैंने मकान एक भी नहीं बनाया।’ ‘मकान नहीं बनाया तो क्या किया?’ ‘आपने जो कहा वह काम मैंने कर दिया।’ ‘क्या किया?’ ‘आपने क्या कहा था, मेरे रुकने लायक स्थान बना दो, मैंने वह बना दिया।’ बोले ‘कैसे बनाया?’ बोला – ‘ये ₹५०,००० में से मैंने ₹५,००० भी खर्च नहीं किए और पूरे रास्ते भर में रहने वाले हर व्यक्ति को अपना मित्र बना लिया। आपके लिए तो मैं २-५ मकान बनाता, पर अब आप जहाँ खड़े हो जाओ, मकान आपका।’ 

मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ जो केवल पैसे के पीछे भागते हैं वो मकान बना रहे हैं और जो रिश्तो को मेंटेन करते हैं, मित्र बना रहें हैं। हम परमार्थ की तरफ बढ़ेंगे, निश्चयत: वहाँ हमारे जीवन के लिए उपलब्धियाँ होंगी।

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