जैन मुनि दिन में एक बार ही खड़े-खड़े आहार ग्रहण क्यों करते हैं?

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शंका

जैन मुनि दिन में एक बार ही खड़े-खड़े आहार ग्रहण क्यों करते हैं?

समाधान

जैन मुनि दिन में एक ही बार आहार ग्रहण करते हैं! इसीलिए कि एक ही बार में हमारा काम चल जाता है। गाड़ी में ईंधन क्यों डाला जाता है? ताकि गाड़ी चलती रहे, बस जैन मुनि का उद्देश्य यही है। 

भोजन के प्रति दो दृष्टिकोण हैं- एक जीने के लिए खाना और दूसरा खाने के लिए जीना। मैं बात को दोहरा रहा हूँ- जीने के लिए खाना और खाने के लिए जीना! आम जन भले ही खाने के लिए जीते हों, पर जैन मुनि केवल जीने के लिए खाते हैं। हमारा काम चौबीस घंटे में एक बार भोजन-पानी लेने से अच्छे से चल रहा है, तो वह हमारे लिए पर्याप्त है। आपके लिए आश्चर्य होगा, हमारे लिए हमारी चर्या का सहज अंग है, क्योंकि साधना के बल पर अपनी Mental (मानसिक) और Physical requirement (शारीरिक आवश्यकताओं) को reduce (कम) किया जा सकता है। हमारी गाड़ी इतने में बड़े आराम से चल रही है, वहाँ कोई कमी नहीं, कोई परेशानी नहीं, तो दूसरे वक़्त भोजन की जरूरत ही क्या? 

जैन मुनि चौबीस घंटे में एक ही बार भोजन लेते हैं, पानी लेते हैं और वह भी खड़े-खड़े, अपने हाथों में! खड़े-खड़े अपने हाथ में अंजुली को पात्र बनाकर! आपके मन में यह भी सवाल आ सकता है कि, जैन मुनि खड़े होकर के ही भोजन क्यों लेते हैं? आप थोड़ा सा प्रकृति के आश्रित प्राणियों पर ध्यान देना; मैं जैन मुनि की चर्या से कुछ चीजें जोड़ना चाहता हूँ:

१. प्रकृति के आश्रित कोई भी प्राणी वस्त्र अङ्गीकार नहीं करते, जैन मुनि भी दिगम्बर होते हैं;

२. प्रकृति के आश्रित जितने भी प्राणी हैं-बीमारी आदि के अपवाद की स्थिति को छोड़ दो- तो सब आपको खड़े-खड़े भोजन करते मिलेंगे, जैन मुनि खड़े-खड़े भोजन करते हैं;

३. प्रकृति के आश्रित कोई भी प्राणी, ब्रश नहीं करते है, जैन मुनि दन्त धावन नहीं करते;

४. प्रकृति के आश्रित कोई भी प्राणी स्नान नहीं करते, जैन मुनि भी कभी स्नान नहीं करते, धूप और वायु ही उनका स्नान करा देती है;

५. प्रकृति के आश्रित कोई भी प्राणी किसी बिछोने का प्रयोग नहीं करते, जैन मुनि किसी बिछोने का प्रयोग नहीं करते।

तो ये प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाकर जीना और जीवन के प्राकृतिक स्वरूप, जो सहज वीतराग है, उसे पाना, यही जैन साधना का लक्ष्य है और इसीलिए जैन मुनि इस मार्ग को अङ्गीकार करते हैं। वे खड़े-खड़े भोजन करते हैं, उसके पीछे एक और अनुभव की बात बताता हूँ, बैठकर भोजन करोगे, तो ठूँस-ठूँस के भोजन किया जा सकता है, खड़े-खड़े भोजन करने वाले कभी अफ़र नहीं सकते, खड़े होकर कम खाया जाता है। इसीलिए आजकल आप लोगों का जो खाने पीने का तरीका है, उसका फायदा सीधा कैटरिंग वाले उठाते हैं, पेट भर ही नहीं पाता। हमारा यह भी एक लक्ष्य है, जब तक हम अपने पैरों से खड़े होने की स्थिति में है, तभी तक भोजन ग्रहण करेंगे। जब हमारे पैर खड़े होने में असमर्थ हो जाएँ, तो हमारे लिए आज्ञा है कि फिर इस शरीर की अन्तिम परिणति समझते हुए, सल्लेखना-सन्थारा के लिए वियोग करें, तो ये हमारी साधना का अंग है।

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