आचार्य-उपाध्याय भी णमोकार मंत्र में साधु परमेष्ठी को नमन क्यों करते हैं?

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शंका

जो ऊँची post (पद) पर होता है, वह भी नीची पोस्ट वाले को नमस्कार करता है, झुकता है, respect (आदर) आदि देता है। इसी तरह हम वर्तमान में देखते हैं कि आचार्य परमेष्ठी और उपाध्याय परमेष्ठी णमोकार मन्त्र का जाप करते हैं,तो णमोकार मन्त्र में अन्तिम लाइन आती है, “णमो लोए सव्वसाहूणम्” उसे भी बोलते हैं।

समाधान

णमोकार मन्त्र हम लोग जपें तो ठीक है पर आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठी क्यों जपते हैं जिसमें उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की भी वन्दना है? यही जैन धर्म की विशेषता है। जैन धर्म में व्यक्ति को नहीं पूजा जाता है गुणों को पूजा जाता है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच व्यक्ति नहीं ये गुण सम्पन्न आत्मा हैं। ये हमारी गुणात्मक व्यवस्था है। इसलिए जिसने अपने घातिया कर्म का क्षय कर लिया वह अरिहंत, जो समस्त कर्म का क्षय कर चुके हों वह सिद्ध, जो पंचाचार का पालन करे और कराये वह आचार्य, जो द्वादशांङ्ग के ज्ञानी हों अथवा पूरे संघ का अध्ययन और अध्यापन का कार्य कराते हों वह उपाध्याय और जो रत्नत्रय की साधना करे वह साधु है। ये सब कोई अलग-अलग व्यक्ति नहीं ये सब हमारे भीतर की अवस्थाएँ हैं। तो इन अवस्थाओं को धारण करने वाली प्रत्येक आत्माएँ प्रणम्य हैं क्योंकि इन्हीं श्रेणियों से होकर के मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है। 

आचार्य भी एक साधक हैं जब तक वह प्रवृत्ति में हैं तब तक आराधक हैं। हमारे आराध्य पाँच ही हैं। जब हम साधना में जाते हैं तो साधना की गहरायी में डूबते समय सिद्ध प्रभु का भी आलम्बन छोड़ देते हैं जब तिक सिद्धों का आलम्बन है तब तक ही वह सचित्त परिग्रह कहा है। साधना में डूबने वाले को पूरी तरह आत्मकेन्द्रित होना पड़ता है। यानि आत्मा का आत्मा से contact (जुड़ना), वहाँ आराध्य और आराधक भाव खत्म। स्वयं ही आराधक और स्वयं ही आराध्य हैं। अपने आप को अपने आप में केन्द्रित करना। लेकिन जब हम आराधना के क्षेत्र में आते हैं तो हमारे आराध्य पाँच हैं। इन पाँचों की आराधना प्रत्येक आराधक द्वारा, जो-जो आराधक हैं आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीनों आराधक हैं तो ये तीनों पाँचों की आराधना करते हैं। इसीलिए णमोकार मन्त्र आचार्य भी बोलते हैं। उस समय जब वो आराधना में रहते हैं, वो भूल जाते हैं कि मैं आचार्य हूँ। उस समय उनको ये ध्यान रहता है कि ‘मैं एक साधक हूँ। मैं आराधक हूँ और ये पंच परमेष्ठी मेरे आराध्य हैं, ये वंदनीय हैं। जिनेन्द्र भगवान की मुद्रा से रत्नत्रय मेरे जीवन का इष्ट है। मैं रत्नत्रय और रत्नत्रयधारी की वन्दना कर रहा हूँ।’ इस मनोभाव के साथ सब आराधना का कार्य करते हैं तो कोई बुराई नहीं है। 

आचार्य, उपाध्याय और साधु के द्वारा भी ये मुद्रा वंदनीय है। सबके लिए वंदनीय है और एक बात और बता दूँ, मुक्ति न आचार्य को है न उपाध्याय को मुक्ति तो साधु को है। जब तक आचार्य आचार्यत्व में पड़े रहेंगे तब तक मोक्ष नहीं जायेंगे। जब तक उपाध्याय उपाध्यायत्त्म में पड़े रहेंगे मोक्ष नहीं जायेंगे। मोक्ष कब जायेंगे? जब साधु हो जायेंगे, अपनी साधना में डूब जायेंगे। तो जो साधना में डूबता है वह साधु हो जाता है और साधु अगर साधु की वन्दना करता है, तो क्या गलत है?

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