युवा धर्म के प्रति आकर्षित क्यों नहीं होते?

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शंका

आजकल मंदिरों में धर्म से जुड़े हुए वयोवृद्ध (aged) लोग ज़्यादा दिखते हैं। युवा (youth or youngsters) धर्म के प्रति आकर्षित (attract) क्यों नहीं होते?

समाधान

यह बात सही है कि धर्म क्षेत्र में ज्यादातर प्रौढ़ और बुजुर्ग लोग दिखते हैं, युवा कम दिखते हैं। 

इसके पीछे दो-तीन कारण हैं, पहला कारण- आज के युवाओं की बदली हुई जीवनशैली- उनके पढ़ाई का बोझ, देर तक सोने की आदत, देर से उठने की प्रवृत्ति। अब रात को 2:०० बजे सोएगा, १०:०० बजे सो कर उठेगा, वो महाराज के प्रवचन सुनने कहाँ से आएगा, कहाँ से मन्दिर आएगा? अगर संस्कार अच्छे हैं, तो ९-१० बजे उठेगा और सीधे मन्दिर में दर्शन करेगा, अपने कॉलेज जाएगा, कोचिंग जाएगा या व्यापार से जुड़ा है, तो व्यापार देखेगा। बदली हुई जीवनशैली ने हमारे युवाओं के सोच को प्रभावित किया है इसलिए युवा वर्ग ज़्यादा आगे नहीं आता। 

दूसरा युवाओं की एक अपनी सोच होती है, इस उम्र में जोश और जुनून होता है। उनके मन में एक अलग धारणा बनती है- “यह सब चीजें बाद की हैं, अभी तो मौज करो, मस्ती करो, आनन्द लो”- यह सोच होती है। अधिकतर युवा कहते हैं- “अभी मेरी उम्र थोड़ी हुई है”, उसको एक रंगीन काल्पनिक दुनिया में जीने में रस दिखता है, वह उधर भागता है, उधर का आकर्षण कुछ ज़्यादा होता है। यह उम्र-जन्य असर है, उसका प्रभाव उत्पन्न होता है, तो उसकी तरफ भागता है। इसलिए वह नहीं करता और ज़्यादा अनुभव उसके पास नहीं होता, समझ उसके अन्दर नहीं होती इसलिए स्थिरता नहीं आती। 

अब सवाल बुजुर्गों के ज़्यादा आगे आने का, वो इसलिए क्योंकि वे अनुभव के दौर को पार कर चुके होते हैं। उन्हें इस बात का अनुभव पक्की तरह से हो जाता है कि जीवन का रस भोग विलास मौज मस्ती में नहीं है। उन्होंने खूब भागदौड़ करके देख ली, इससे शांति नहीं मिलती। शांति का असली स्थान अध्यात्म है, धर्म की आराधना है, इसी से मन को तृप्ति मिलेगी। हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति से तृप्ति नहीं पा सकते, इच्छाओं के नियंत्रण से तृप्ति मिलती है। भोग कभी आनन्द नहीं देता, त्याग और संयम ही हमें आनन्द देता है। यह अनूभूति एक उम्र पार करने के बाद होती है। अभी तुम्हे नहीं है, तुम्हारी माताजी को हो गई। जब तुम उस उम्र की अवस्था में पहुँचोगे, तुम्हें भी होगा। 

जितने बुजुर्ग होते हैं उनके अन्दर कुछ रिक्तता की अनुभूति होती है, कुछ खालीपन लगता है, उन्हें सहारा चाहिए। उनमें कहीं न कहीं निराशा रहती है- अपने बच्चों से दुत्कारें जाते हैं तो निराशा होती है, पारिवारिक उलझनों के कारण उनके अन्दर निराशा होती है, अपने व्यापार-व्यवसाय में मिली हुई विफलता के कारण निराशा होती है। जब व्यक्ति निराश होता है या हारता है, तो उसे संभालने के लिए और कोई नहीं धर्म का दरबार एक साधन बनता है इसलिए बुजुर्ग लोग उसमें आगे आते हैं। कई चीजें हम अपने अनुभव से सीखते हैं और कई बातें ऐसी होती है जो हम अपने अनुभव से नहीं सीखते, दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। जब तुम बुजुर्ग बनोगे और तब धर्म में रुचि लोगे यह तो बाद की बात होगी। अभी के बुजुर्गों को देख करके सीख लो, यह सोचो कि तुम आखिरी क्षण तक जवान बने रहो और अभी से धर्म से जुड़े रहो। जवानी में धर्म से जुड़ोगे तो बुढ़ापा कभी नहीं आएगा, इस बात को ध्यान में रखकर चलो।

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