तीर्थंकर राज-परिवार से ही क्यों होते हैं?

150 150 admin
शंका

तीर्थंकर राजा-महाराजा के परिवार से ही क्यों बनते हैं, सामान्य व्यक्ति तीर्थंकर क्यों नहीं बनते हैं?

समाधान

इसी आशय का प्रश्न एक बार पत्रकार ने मुझसे पूछा था। उन्होंने मुझसे पूछा कि ‘जैन धर्म में जहां एक ओर समता की बात की जाती है, सामाजिक समता की बात की जाती है, फिर भी क्या कारण है कि जितने भी महापुरुष हुए वो राजा-महाराजा के ही यहाँ हुए? मैंने कहा “नहीं! आपने जैन धर्म को नहीं समझा। जैन पुराण राजा- महाराजाओं की कथाओं से नहीं भरा। जैन पुराण तो भीलों और कुक्कुड मरकटों की कथाओं से भरा पड़ा है। तीर्थंकर तो मनुष्यता का चर्मोत्कर्ष रूप है और उस चर्मोत्कर्ष रूप को कोई भी क्रमशः अपनी साधना के बल पर पा सकता है। जब पुराणों में किसी को कथा नायक बनाया जाता है, तो उसका जो उत्कृष्ट रूप है उसको रखते हैं लेकिन उसके पीछे की भूमिका भगवान बनाते हैं।” भगवान महावीर की कथा को जब हम लोग पढ़ते हैं तो पुरुरवा भील की पर्याय से उनकी कहानी की शुरूआत होती है। जो एक भील था, जानवरों को मारना और राहगीरों को लूटना उसका रोज का क्रम था। वो भील ने अपने अन्दर अहिंसा का बीज पैदा किया और वो बीज पल्लवित होकर इस प्रकार विकसित हुआ की भील ही भगवान महावीर बन गया। ये घोषणा केवल जैन ग्रन्थ में मिल सकती है कि एक साधारण भील भी भगवान बन सकता है। भगवत्ता की प्राप्ति के लिए प्रबल प्रयास है। 

राजा महाराजा जो तीर्थंकर बनते हैं वो अनादि से राजा महाराजा नहीं हैं एक भील, एक किंकण, एक साधारण प्राणी अपनी चेतना का क्रमिक विकास करते हुए उस उत्कृष्ट रूप को प्राप्त करता है। इसलिए ये जैन धर्म का स्पष्ट उदघोष है। ‘अप्पा सो परमप्पा‘, आत्मा ही परमात्मा है और प्रत्येक आत्मा के भीतर प्रत्येक परमात्मा ‘परमात्मा शक्ति’ के रूप में विद्यमान है। जो अपनी साधना के बल पर उसकी अभिव्यक्ति कर लेता है, वो तर जाता है। इसलिए ये राजा महाराजा कोई पक्षपात नहीं है, उनकी साधना का पुरस्कार है। एक साधारण प्राणी भी अपने जीवन को उसके चर्मोत्कर्ष रूप तक पहुँच सकता है।

Share

Leave a Reply