कुछ धार्मिक लोग गृहीत मिथ्यात्व को छोड़ने से क्यों डरते हैं?

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शंका

नब्बे प्रतिशत से ज्यादा लोग मन्दिर में तीन-चार घंटे तक भगवान की पूजन करते हैं,शास्त्र, स्वाध्याय, आहारचर्या सब कुछ करते हैं और उसके बाद भी गृहीत मिथ्यात्व को नहीं छोड़ पाते हैं, और फिर कभी छोड़ने को कहा जाता है, तो कहते हैं कि घर में अलग प्रकार का उपसर्ग होने लगता है, या डर लगने लगता है। ऐसा क्यों?

समाधान

धर्म आराधना करने के दो तरह के दृष्टिकोण होते हैं। कुछ लोग आत्म-कल्याण की भावना से धर्म-आराधन करते हैं और कुछ लोग भय और लोभ वश धर्म-आराधन करते हैं। जो आत्म-कल्याण के भाव से धर्म-आराधन करते हैं वो तत्त्वज्ञान को अपनी साधना का आधार बनाते हैं, और ऐसे लोग भगवान की पूजा-अर्चा का उद्देश्य भी अच्छा रखते हैं। वे कर्म सिद्धान्त के दृढ़ विश्वासी होते हैं। लेकिन जिन्हें आत्मा-अनात्मा का बोध नहीं, तत्त्व ज्ञान से जो शून्य होते हैं, अथवा लौकिक भोग-आकांक्षा से प्रेरित होकर धर्म का आराधन करते हैं, ऐसी भोगाकांक्षा से प्रेरित लोग, कर्म सिद्धान्त को भूलकर तरह-तरह के कर्म काण्डों में उलझ जाते हैं। इनमें बड़ा भय होता है और बड़ा लोभ होता है। नतीजा ये होता है कि धर्म करने के बाद भी वे धर्म के फल से वंचित रह जाते हैं। दृढ़ सिद्धान्ति बनने की आवश्यकता है। तत्त्व ज्ञान को और कर्म सिद्धान्त को समझने की आवश्यकता है।

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