आचार्य श्री विद्यासागर अपने कार्यक्रम के बारे में पहले से क्यों नहीं बताते हैं?

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शंका

आचार्य जी अपने किसी कार्य के बारे में पहले से क्यों नहीं बताते हैं? यहाँ तक कि दीक्षा, विहार के बारे में भी। जब तक किसी स्थान पर नहीं पहुँचते, सस्पेन्स बना रहता है। लोग परेशान रहते हैं। महाराज जी आप ये मत कहना कि ‘आचार्य श्री से जाकर के पूछो’ उनसे पूछने की हमारी हिम्मत नहीं है।

समाधान

आचार्य श्री कहते हैं कि अनिश्चय की दशा में निश्चय भाषा का प्रयोग मत करना। उनके कार्यक्रम अन्तिम क्षणों में बनते हैं। लोगों को ऐसा लगता है कि वह पहले से निश्चित होता है, ऐसा कुछ नहीं है। एक प्रसंग मैं आपको सुनाना चाहता हूँ।

 सन् १९९३ में हम लोग जबलपुर में थे। जबलपुर का नंदीश्वर द्वीप का गजरथ पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। उस कार्यक्रम की सम्पन्नता के उपरान्त आचार्य महाराज ने मुझे बुलाया और मुझसे कहा कि ‘एक काम करो, देवरी में प्रमोद जी व सिंघई परिवार के द्वारा गजरथ पंचकल्याणक का आयोजन होना है, तुम लोग जाओ।’ मैंने कहा- “महाराज जी! मैं अकेले तो जाऊँगा नहीं।” बोले – ‘समता सागर जी हैं और ऐलक निश्चय सागर जी को भी लो।’ मैंने बोला- “ठीक है महाराज जी।’ आप बोले- ‘मैं बहुत थक गया हूँ मेरी जाने की मंशा नहीं है तुम लोग अभी चले जाओ। मन्दिर का पूरा जीर्णोद्धार उन्होंने कराया और गजरथ भी वो लोग अपने द्रव्य से करा रहे हैं। उनका कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हो जाये ये मेरा आशीर्वाद है।’ फिर उन्होंने कहा कि ‘ऐसा करना फिर उसके बाद सागर में चले जायें।’ हमने कहा- ‘महाराज जी! सागर तो हम लोग अकेले नहीं जाएँगे या तो आप चलो या दो-तीन संघ और भेजो क्योंकि सागर वालों की बड़ी अपेक्षा है आपके सानिध्य की।’ बोले -‘ठीक है! मैं देखता हूँ तुम लोग जाओ।’ हम लोगों ने विहार किया; थोड़ा लेट विहार किया था। १४ कि.मी. चल के सहसपुर में विश्राम किया। फिर दूसरे दिन चलकर शाहपुर आ गये और वहाँ से हमें २:३० बजे विहार करना था। १:१५ बजे हमारे पास खबर आई कि आचार्य महाराज जी मढ़िया जी से शाहपुरा के लिए विहार कर गये। हमने सारा कार्य निरस्त किया और उनकी अगवानी में लग गये। भाव भक्ति से पूरे समाज ने उनकी अगवानी की। आने के बाद मैंने पूछा कि “गुरुदेव अचानक?” बोले-  ‘मैंने सोचा कि मैं भी चलता हूँ।’ एक दिन पहले उनका कोई विचार नहीं था, एक दिन बाद उनका मन बदला। वे न केवल देवरी गए अपितु सागर भी गए और बड़ी धूम-धाम से दोनों गजरथ महोत्सव सम्पन्न हुए। 

तो उनका वहीं जानते हैं, वो अन्तिम क्षणों में निर्णय लेते हैं। कई-कई बार तो चौराहे पर खड़े होकर सोचते हैं कि मुझे कहाँ जाना है? तो ऐसा क्यों होता है इसका उत्तर मैं नहीं दे सकता हूँ। ऐसा क्यों होता है ये आप मुझसे पूछेंगे तो मैं यही कहूँगा कि वो आचार्य श्री जी हैं, इसलिए ऐसा होता है।

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