किसकी सुनें – माता-पिता की या अपने मन की?

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शंका

आज के प्रतियोगी युग में माता-पिता अपने बच्चों को बहुत अच्छे से सपोर्ट करते हैं। फिर भी माता-पिता और बच्चों की सोच अलग होती है। माता-पिता कुछ और करवाना चाहते हैं और बच्चे कुछ और करना चाहते हैं। माता-पिता भी अपनी जगह सही होते हैं और कई हद तक बच्चे उनकी बात मान भी लेते हैं लेकिन उनका मन नहीं मानता। तो उस समय माता-पिता की सुनें या अपने मन की? ऐसी स्थिति में मन को शान्त करने के लिए क्या करना चाहिए?

समाधान

इसे बहुत गम्भीरता से समझने की जरूरत है। माँ बाप बच्चों की हित की चाह रखें, उन्हें आगे बढ़ायें लेकिन उन पर सब चीजें लादे नहीं, थोपें नहीं। अपने बच्चों के मार्गदर्शक बनें, मार्गनिर्णायक न बनें। उनकी रुचि देखें, उनकी भावना देखें, उनकी प्रतिभा को देखें और यह देखें कि वह क्या कर सकता है, क्या करना चाहता है, उसी दिशा में उसको आगे बढ़ाएँ। जोर जबरदस्ती से अगर आप कभी किसी को आगे बढ़ा दें, बच्चे दबाव-प्रभाव में आकर उसे स्वीकार भी कर लें तो कभी-कभी बड़ी भयानक स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं। 

मेरे सम्पर्क में एक परिवार है जिसका बेटा डॉक्टर बनना चाहता था, पिता एक इंडस्ट्रियलिस्ट है। उन्होंने अपने बेटे को इंजीनियरिंग करा दी, उसने मैकेनिकल इंजीनियरिंग तो पूरी कर ली लेकिन बेटे के मन में एक भावना बन गई कि ‘मैं डॉक्टर बनना चाहता था और मेरे पापा ने मेरा पूरा कैरियर खराब कर दिया।’ इस प्रकार की कुंठा उसके मन में आ गई, एक प्रकार की गाँठ उसके मन में बैठ गई और उसके कारण वह अपने पापा के साथ बुरा व्यवहार करने लगा। उसने कहा मुझे बिजनेस करना ही नहीं। उसके पिता ने मुझसे कहा, मैंने उनके बेटे से अकेले में बात की। मैंने पूछा ऐसा क्यों किया? बोला – ‘पहले पापा ने मेरा पूरा कैरियर बिगाड़ दिया, मैं डाक्टर बनना चाहता था, मेडिकल लाइन में जाना चाहता था, मेरे दोस्त भी उसी लाइन में गए, जबरदस्ती मुझे इंजीनियरिंग करा दी। अब वो सम्भालें अपनी इंडस्ट्री, उनको केवल अपने लिए एक नौकर चाहिए था, इसलिए मुझे इंजीनियर बना दिया।’ मैंने उसकी पूरी बात सुनी, उसके अन्दर की भड़ास निकाल ली। फिर धीरे से उससे कहा- देख भाई पिता आखिर पिता होता है। ठीक है तेरी रूचि डॉक्टर बनने की थी और तू डॉक्टर बनता तो तुझे ज़्यादा खुशी मिलती। पर ध्यान रखना तेरे पिता ने तुझे डॉक्टर बनने से रोका है या इंजीनियर बनाया, वह तेरी खुशी के लिए नहीं बनाया, तेरे हित के लिए बनाया है। खुशी से ऊँचा हित होता है, खुशी अल्पकालिक है, हित दीर्घकालिक होता है। तू मेडिकल लाइन में जाता, कोई जरूरी नहीं उसमें सफल होता। कदाचित डॉक्टरी कर भी लेता तो जब तक पीजी (PG) नहीं हो डाक्टर की कोई वैल्यू नहीं। पीजी होने के बाद जब तक नर्सिंगहोम नहीं खोल लेता तब तक तो कुछ कमा भी नहीं पाता। आज के समय में मेडिकल, प्रोफेशन इंडस्ट्री हो गई है। तुझे सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता और कदाचित भाग्य साथ नहीं देता, परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं होती तो हो सकता है, तो विफल भी हो जाता। लेकिन तेरे पापा की जमी जमाई इंडस्ट्री है, आज सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा है। तू इकलौता बेटा है, आज तू पापा की इंडस्ट्री को सम्भाल रहा है और सम्भाल लेगा तो उसे कितनी ऊँचाई पर पहुँचा देगा। एक तो ट्रेक बनाकर गाड़ी चलाना और एक बनी बनाई ट्रेक पर गाड़ी चलाना, कितना अन्तर है? तेरे पापा ने सोचा कि मेरे बेटे को ज़्यादा कोई तकलीफों का सामना न करना पड़े, इसलिए ऐसा किया। बाप के फैसले को सदैव शंका की निगाह से मत देखो। माँ-बाप के फैसले को हित की भावना से स्वीकार कर लो, जीवन में कभी विफल नहीं होंगे।

दोनों तरफ से बात कहना चाहूँगा, माँ-बाप को चाहिए कि बच्चों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपने निर्णय दे। निर्णय थोपे नहीं और बच्चों को चाहिए कि माँ-बाप के निर्णय को सदैव अपने हित की बात मानकर के स्वीकार करें, ख़ुशी की बात मान करके नहीं। एक बार गुरुदेव हम लोगों को प्रतिक्रमण पढ़ा रहे थे, तो एक कोई प्रसंग आया, तो मैंने कहा ‘गुरुदेव यह बात मन को अच्छी नहीं लगती।’ गुरुदेव ने तुरन्त जवाब दिया- ‘मैंने तेरे मन को अच्छा लगे इसलिए तुझे दीक्षा नहीं दी, तेरी आत्मा अच्छी बने इसलिए तुझे दीक्षा दी है।’ इसलिए मन की बात मत देखो, आत्मा की बात देखो। मन केवल खुशी खोजता है और आत्मा के साथ हित जुड़ा होता है। सम्पूर्ण जीवन की बात हमें देखनी चाहिए और हित की बात सोचना चाहिये।

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