वर्तमान में कोई भी अव्रती या महाव्रती जो कर्म उदय के कारण शिथिलाचार को ग्रहण कर लेता है, क्या उनके शिथिलाचार को स्थितिकरण (सम्यकदर्शन अंग) में बदलने का हमें अधिकार है? और यदि अधिकार है तो उसको बदलने के उपाय क्या है?
स्थितिकरण के लिए तो सन्त कहते हैं कि ‘यदि तुम किसी को ऊपर उठाना चाहते हो तो तुम्हारा स्वयं का स्तर उससे ऊँचा होना चाहिए।’ आप गढ्ढे में रहकर किसी को ऊँचा नहीं उठा सकते हो। आप ऊपर होंगे तभी आप किसी को ऊपर उठा सकते हो।
एक बार एक चूहा सुतली लेकर के जा रहा था। पूछा- कहाँ जा रहे हो? तो बोला कि ‘एक हाथी दलदल में फँस गया’, फिर पूछा कि- ये सुतली क्यों ले जा रहा है? तो बोला कि ‘इससे हाथी को बाँधकर निकालूँगा।’ चूहा सुतली से हाथी को नहीं निकाल सकता है। रहा सवाल गृहस्थों द्वारा मुनियों के स्थितिकरण का, तो गृहस्थ भी मुनियों का स्थितिकरण करते हैं। यदि उनकी धर्म निष्ठा गहरी हो। स्वयं चरित्रवान हों तो कर सकते हैं और करते भी हैं। एक प्रसंग मैं आपको स्थितिकरण का सुनाता हूँ।
पं. जगन मोहनलाल सिद्धान्त शास्त्री के जीवन में घटित घटना उनके ही मुख से मैंने सुनी है। खजुराहो में एक मुनि थे, उनकी चर्या को लेकर पूरे इलाके की समाज में असन्तोष था। घटना १९८०-८२ के आसपास की है। पूरे इलाके ने निर्णय लिया कि इन मुनि महाराज की चर्या मुनि चर्या के अनुकूल नहीं है इसलिए इन्हें कपड़ा पहना दिया जाये। पं. जगन मोहन लाल जी का उस क्षेत्र में काफी प्रभाव था। उनको सूचना मिली तो वे अपने बेटे सिद्धार्थ के साथ खजुराहो गये सतना से। वहाँ गये तो लोगों का बड़ा हुजूम लगा हुआ था। पं. जी जैसे ही पहुँचे तो लोगों ने कहा कि आप आ गये, आज तो हम कपड़ा पहनाकर ही छोड़ेंगे। ये कोई साधु की चर्या है, दिन भर शरीर पर पानी डालते रहते हैं और रात में घास पर लेट जाते हैं ये कोई मुनि चर्या होती है? पं. जी बहुत अनुभवी थे। बोले- ठीक है तुम लोगों की बात मैं बाद में सुनूँगा। तुमने महाराज जी के बारे में जो बोला वह मुनि के साथ नहीं होना चाहिए। लेकिन तुम लोगों में से किसी एक ने भी जाकर उनसे इसका कारण पूछा कि आप ऐसा क्यों करते हैं? लोग बोले- क्या पूछें? वह कोई साधु थोड़े हैं, असाधु से क्या पूछें? पं. जी ने कहा ‘खबरदार! कपड़ा पहनाना सरल है पर कपड़ा उतारने में जन्म बीत जाते हैं। जब तक मैं लौट के नहीं आता तब तक तुम लोग कोई भी प्रतिक्रिया नहीं करोगे।’ वो महाराज जी के पास गए और विनम्रता के साथ उन्होंने नमोस्तु किया। कहा- महाराज जी आप तो महान हो, धन्य हो, आपने यथाजात रूप को धारण किया, जिनमुद्रा आपने धारण किया, त्रिलोक पूजनीय व त्रिलोक वंदनीय स्वरूप आपने प्राप्त किया, आपकी जितनी महिमा गाऊँ उतनी ही कम है। पर महाराज जी आपके विषय में जो हमने सुन रखा है वह बात ठीक नहीं जंचती है, ये चीज ठीक नहीं है।’ इतना सुनते ही उन मुनि महाराज की आँखों में आँसू आ गये और महाराज जी ने कहा कि ‘पंण्डित जी मुझे भी अपनी इस चर्या को देखकर बड़ा पश्चात्ताप होता है पर मैं क्या करूँ? मेरे सम्पूर्ण शरीर में दाह ज्वर है। मेरे पूरे शरीर में दाह होती है। ऐसी जलन जिसे बर्दाश्त न किया जा सके। दिन में तो मैं अपने कमण्डल के पानी से सींच कर दाह शान्त करता हूँ और रात में जब मुझसे बर्दाश्त नहीं होती तो मैं घास पर लेट जाया करता हूँ। मैं क्या करूँ?’ पंण्डित जी ने उन्हें समझाया- महाराज आप तो महाव्रती हो, अनन्त पुरुषार्थी हो, आपकी आत्मा में बड़ा पराक्रम और पुरुषार्थ है। आपने नरकों की वेदना को भी सहा है। ये भी वेदना भी सहें। महाराज जी ने साथ में ये भी कहा कि ‘कई दिन से मेरा आहार भी नहीं हो पाया है, अन्तराय हो रहे हैं।’ बोले- महाराज आपकी आहार और वैयावृत्ति की जिम्मेदारी हमारी है। हम आपकी चिकित्सा भी कराएँगे। आप अपनी चर्या को ठीक करें तो बहुत उत्तम होगा। पण्डित जी के द्वारा समझाए जाने के बाद महाराज जी का मन स्थिर हुआ। उन्होंने कहा कि ‘निश्चित मैं इसका प्रायश्चित ग्रहण करूँगा।’ फिर उसी दिन वैद्य को बुलाकर उनकी चिकित्सा कराई गई और वे महाराज स्वस्थ होकर एक अच्छे चर्या के धारी साधु के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। पण्डित जी ने लौटते ही लोगों से कहा कि तुम लोगों ने साधु को कपड़ा पहनाने की बात तो सोच ली पर क्या साधु की चर्या कराने की जिम्मेदारी श्रावकों की नहीं है? क्या उनका आहार देने की या वैयावृत्ति करने की जिम्मेदारी श्रावकों की नहीं है? क्या उनकी चिकित्सा कराने की जबावदेही श्रावकों की नहीं है।
इसलिए एक सम्यक् दृष्टि श्रावक ही एक सम्यक् दृष्टि मुनि का स्थितिकरण कर सकता है। हाथी को यदि खून की जरूरत हो तो हाथी से ही दिया जा सकता है चींटी से नहीं, इस बात का ध्यान रखें। आज कल चींटियाँ हाथी को ब्लड देने में लग गई है।
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