जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र और तीर्थंकरों की भाषा कौन सी थी?

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शंका

जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र एक बिन्दु के समान है। भरत क्षेत्र में १५० देश जाने जाते हैं, उन सब की प्राय: अलग-अलग भाषा है, कहीं स्पेन, चीन, हिन्दी, अंग्रेजी है। लेकिन जब हम धर्मशास्त्रों का अध्ययन करते हैं, वहाँ स्वर्ग या नरक हो या अन्य कोई जगह, संस्कृत अथवा हिन्दी में नाम बताये जाते हैं। मेरा प्रश्न है कि क्या सब जगह हिन्दी ही चलती है, क्या सब जगह जैनियों की ही प्रॉपर्टी है?

समाधान

पहले तो आप अपनी बात को सुधार लें; भरत क्षेत्र, जम्बूद्वीप का बिन्दु मात्र नहीं है, भरत क्षेत्र सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का १९० वाँ भाग है। भारत वर्ष जम्बूद्वीप का एक बिन्दू मात्र कह सकते हैं। भारत बहुत छोटा सा है, वर्तमान ग्लोब में भी छोटा सा दिखता है। सम्पूर्ण विश्व की भाषाओं को हम देखते हैं तो अनेक भाषाएँ हैं। भगवान कितनी भाषा में बोलते हैं? दशअष्ट महाभाषा समेत सप्तशत लघुभाषा। ७०० लगभग लघु भाषाएँ और १८ महा भाषाओं को भगवान की वाणी से जोड़ा गया है।

भगवान की वाणी सर्वभाषा स्वभावी होती है। तो इतनी भाषा उस काल में होती थीं। अब रहा सवाल देव वाणी का – देव वाणी को संस्कृत कहा जाता है, क्योंकि संस्कृति का मूल संस्कृत से सम्बन्ध रहा है और विश्व की विभिन्न भाषाएँ ऐसी हैं जो संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं। इन भाषाओं को लघु भाषा या क्षेत्रीय भाषा के रूप में ले सकते हैं। तीर्थंकरों का जन्म इस भारत भूमि में हुआ तो उनके जो धर्मोपदेश हुए वो भारत की भूमि के अनुरूप ही हुए। उसमें एक शब्द और आया, 

सर्वार्धमागधिका भाषा मैत्रिकं सर्वजनाः विषयाः

भगवान की वाणी सर्वार्धमागधि होती है। सर्वार्धमागधि का मतलब आधी मागधी और आधी सर्व भाषानुरूप! आप ये देखिए कि भगवान मनुष्यों के लिए ही नहीं पशुओं के लिए भी बोलते हैं तो स्पेनिश, चाइनीज, जर्मन, फ्रेंच, जैपनीस, लैटिन कोई भी भाषा हो भगवान की भाषा से बाहर कोई भी भाषा नहीं है। बस मगध जाति के देवों के लिए ऐसी व्यवस्था रहती थी कि जो भी भगवान के समवसरण में आता वो उसकी भाषा में समझ जाता था। इसलिए उनको बोला है ‘सर्वभाषासुभावकम्’। उनकी भाषा सर्व भाषा में स्वभावी हो जाती है। 

अब रहा सवाल ग्रंथों के प्रणयन का – तो हमारे आचार्यों ने न कभी क्षेत्रवाद को महत्त्व दिया, न भाषावाद को महत्त्व दिया। वो जहाँ भी गये वहाँ की भाषा को अपनी भाषा बनाया। क्योंकि भाषा हमारा साध्य नहीं है हमारे भाव साध्य हैं। भाषा तो हमारे भावों के सम्प्रेषण का माध्यम मात्र है। इसलिए जैन साहित्य हर भाषा में लिखा गया। जितना प्राकृत या संस्कृत में जैन साहित्य का प्रणयन हुआ है, उससे कहीं ज्यादा अन्य भाषाओं में भी हुआ है। आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि तमिल भाषा में जो साहित्य लिपिबद्ध हुआ है उसमें से जैन साहित्य निकाल दें तो तमिल में कोई साहित्य ही नहीं बचेगा। संपूर्ण तमिल साहित्य का बहुलांश (बहुल अंश) जैन साहित्य से जुड़ा हुआ है। तमिल, कन्नड़, मराठी अन्य भाषाओं में भी जैन साहित्य विपुल मात्रा में रचा गया जो आज उपलब्ध है, पर बहुत सारे साहित्य को नष्ट भी कर दिया गया।

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