बुढ़ापे में बच्चों से क्या अपेक्षा रखें?

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शंका

मेरा प्रश्न उन माता-पिताओं की ओर से है जिन्होंने अपने बच्चों को पाठशाला में पढ़ाया, लौकिक शिक्षा दिलाई और अब वे बाहर सर्विस करने लगे। अब माता-पिता अपने बच्चों को जब फोन करते हैं और बताते हैं कि ‘आज मैंने महाराज श्री को आहार दिए, आज मुझे महाराज जी की पिच्छी लेने का अवसर मिला’ तो उनके बच्चे खुशी व्यक्त न करते हुए कहते हैं कि ‘आपने बहुत नियम बढ़ा लिये होंगे, हम आपकी सेवा कैसे कर पाएँगे, अब आप अपनी जानो’ तो ऐसे माता-पिता अपने बच्चों को कैसे समझाएँ कि वे संयम के पथ पर आगे बढ़ने में बाधक न बनें?

समाधान

मैं तो हमेशा ये बात जानता हूँ कि जिसकी foundation (नींव) कमजोर होती है, वह बिल्डिंग हमेशा जर्जर बनी रहती है। जब बच्चों में संस्कार डालने की घड़ी होती है उस समय आज के लोग केवल उनकी पढ़ाई का ध्यान रखते हैं, उनके संस्कारों को भूल जाते हैं। अगर उस घड़ी में उनकी पढ़ाई के साथ-साथ संस्कारों का ध्यान रखा होता तो बच्चों के द्वारा ऐसा जवाब नहीं मिलता। 

मैंने ऐसे भी युवकों को देखा है जो आज उच्च शिक्षा से संपन्न होकर बड़ी-बड़ी कंपनियों में जॉब कर रहे हैं, मैं ज़्यादा नहीं कहूँगा, ये सामने बैठा अभिषेक, गुड़गांव में एक बड़ी कंपनी में बहुत अच्छे ओहदे पर है। सिंगापुर की जॉब छोड़ कर के यहाँ आया है केवल इसलिए कि माँ-बाप के नजदीक रहूँ, यहीं पर इसका घर है। कह रहा था कि ‘महाराज आज मैंने जिस दिन २४ समवसरण महामंडल विधान की बात सुनी, मैंने छुट्टी ले ली और सोचा मेरे घर के बगल में यह विधान हो और मैं उपस्थित न होऊँ, मेरा कैसा दुर्भाग्य!’ यह भावना है। यह किसका प्रतिफल है? अगर अच्छे संस्कार देंगे तो उच्च शिक्षा से संपन्न होने वाले लोग कभी भटकेगें नहीं। यह आवाज उनकी होती है जो पढ़-लिख जाते हैं पर लायक नहीं बन पाते, हम अपने बच्चों को पढ़ाई- लिखाई नहीं, उनके अन्दर लायकी भी पैदा करें। उनके अन्दर हमें जाति मर्यादा, धर्म मर्यादा, कुल मर्यादा को जागृत करने की जरूरत है। अगर हम शुरू से ऐसा काम करेंगे तो ऐसे दुष्परिणाम नहीं आयेंगे। इसे देखें और आगे बढ़ाइए। जिन्होंने अपने बच्चों को अच्छे तरीके से तैयार किया, उनको ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता। जिन्हें आज ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है, वे हताश न हों, बच्चों से अपेक्षाएँ कम कर दें, अपनी तरफ देखें, अपने जीवन के कल्याण का पथ प्रशस्त करने की कोशिश करें। सोचें कि हमने अपना कर्तव्य कर लिया। बच्चों से कहें कि ‘बच्चों! हमें तुम्हारी सेवा की कोई आवश्यकता नहीं है, हम इतने सक्षम है कि अपनी सेवा कर लेंगे, जब तक हमारा हाथ-पाँव चलेगा हम घर पर रहेंगे, नहीं चलेगा हम गुरु शरण में चले जाएँगे, हमारी तो सेवा हो ही जाएगी, हमारा उद्धार होगा’, ऐसा रास्ता अपनाना चाहिये। 

जितनी आप अपेक्षा रखोगे उतनी उपेक्षा होगी। मेरे सम्पर्क में एक सज्जन हैं, उनके दो बेटे हैं, एक UK में और एक अमेरिका में। प्रोफेसर थे, उन्होंने अपनी व्यथा कही कि ‘महाराज एक दिन मेरा मन बड़ा मर्माहत हो गया, मैं अपने बच्चों को फोन लगाऊँ तो वो कहें- पापा अभी मैं मीटिंग में बिजी हूँ, बाद में बात करता हूँ, पापा मैं बिजी हूँ बाद में बात करता हूँ।’ तीन दिन हो गये, उसने कहा ‘इतने बजे फोन लगाऊँगा, स्काइप पर आपसे बात करूँगा।’ अब वो फोन का इन्तजार कर रहें है, बहुत देर से फोन नहीं आया, फोन नहीं आया। उसने कहा ‘पापा मैं एक आवश्यक मीटिंग में हूँ अभी बात नहीं कर सकता।’ उस दिन उस व्यक्ति का हृदय बदला, एकदम कचोट सी उत्पन्न हुई कि ‘जिस बच्चे के लिए मुझसे ज़्यादा उस की मीटिंग महत्त्वपूर्ण है, उस बच्चे से मुझे क्या मतलब रखना। अब मैं अपने लिए जीऊँगा, अब मैं अपने बच्चे को कभी फोन नहीं लगाऊँगा। उसका फोन अपने आप आया,  १० बार आया, तो मैं बात करूँगा। अब मैं अपना सम्पर्क अपने साथ जोडूँगा।’ मोह मनुष्य को रुलाता है और उसकी दुर्गति कराता है, ऐसा मोह मत पालिये।

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