निर्णायक बोली न मिले तो लगाई हुई बोली की राशि का क्या करें?

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शंका

निर्णायक बोली न मिले तो लगाई हुई बोली की राशि का क्या करें?

समाधान

नहीं, निर्माल्य तो नहीं कहूँगा, पर एक घटना सुनाना चाहता हूँ। सन १९६५-६७ के आसपास की बात है, शिखरजी में तेरापंथी कोठी में नंदीश्वर दीप के जिनालय की प्रतिष्ठा के समय कलशारोहण का कार्यक्रम था। उस कार्यक्रम में कलशारोहण की बोली की शुरुआत साहू शान्ति प्रसाद जी की ओर से रु. ५१,०००/= की से गई। उसी समय कोलकाता के एक श्रावक, सुगमचंद जी पांडा, समर्थ किन्तु साधारण श्रावक थे। उन्होंने अपनी ओर से बोली को बढ़ा कर रु ६१, ०००/= कर दिया। फिर क्या था! होड़ लग गई और उस जमाने में बोली रु १,११,०००/= में साहू शान्ति प्रसाद जी के नाम पर टूटी। जैसी वह बोली टूटी, पांडा साहब ने अपनी ओर से रु १,०१,०००/= का चेक आयोजकों को पकड़ा दिया। उन्होंने कहा – “आज मैं घर से सोच कर के चला था कि मुझे आज रु १,०१,०००/=दान में देना है और अगर मुझे अवसर मिले तो मैं कलश चढ़ाऊँगा। मैं केवल बोली बढ़ाने के लिए बोली नहीं बोल रहा था, अपितु मेरी इच्छा थी और मैंने ये बोल दिया। अब मैं आपको यह राशि सौंपना चाहता हूँ।” लोगों ने उनका सम्मान करना चाहा, तो उन्होंने कहा – “मैं सम्मान नहीं कराऊँगा, यह तो मैंने बोल दिया है और अब यह मेरे लिए निर्माल्य हो गया है, मैं दान के नाम पर सम्मान नहीं कराऊँगा।” उन्होंने अपना सम्मान कराने से इंकार कर दिया।

साहू जी ने कहा – “चलिए! आप ही कलश चढ़ा दीजिये।” वे बोले – “नहीं, समाज की मान्य परम्परा के अनुसार कलश चढ़ाने के अधिकारी आप हैं, आप ही कलश चढ़ाएँ।” तब साहू जी ने माइक पकड़ा और कहा – “भले ही सामाजिक परम्परा के अन्तर्गत आज यह बोली मेरे नाम पर छूटी है और मुझे कलश चढ़ाने का अवसर मिल रहा है, पर इन्होंने निर्माल्य द्रव्य की नई परिभाषा बता कर आज हम सब पर, पूरे समाज पर कलशारोहण कर दिया।”और फिर साहू जी माने नहीं और उन्होंने पांडा जी का हाथ कलशारोहण के समय साथ में लगवाया।

यदि आप यह सोच कर के घर से निकल रहे हैं कि इतना दान मुझे देना है, उतना दान दे दो, उसे वापस घर लेकर मत जाओ। कहीं ऐसा न हो की नुकसान हो जाए, और वह धन कहीं और से निकल जाए। जितना सोचो, उतना निकाल दो, जो पैसा निकलने वाला होता है, वह कहीं न कहीं निकल ही जाएगा। पाप में निकले, इससे अच्छा है कि पुण्य में निकल जाए। रहा प्रश्न बोली का, तो केवल इस भाव से कि “आज ही अवसर मिल जाए तो मैं करूंगा…” “आज नहीं तो कल देखूंगा….” “कल नहीं तो परसों….” देखते जाना! मौका मिल जाए तो अच्छी बात है, और न मिले तो उत्तम ब्रह्मचर्य के दिन, जितना तुमने सोचा था, उतना यहाँ सौंप के चले जाना, हिसाब बराबर हो जायेगा।

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