माँ-पिता के विचारों से मतभेद हो तो क्या करें?

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शंका

माता-पिता हमें जन्म देते हैं। वो हमें इतना capable (सक्षम) बना देते हैं कि हम अपना जीवन यापन कर सकें। उनका यह ऋण हम कभी नहीं चुका सकते। लेकिन कुछ परिस्थितियों में हमारे और उनके विचारों के मध्य टकराव आ जाता है और जाने-अनजाने में हम उन्हें दु:खी कर देते हैं तो हम ऐसा क्या करें कि हम उन्हें दुखी न करें?

समाधान

माँ-बाप के ऋणों का स्मरण करोगे तो कभी ऐसा नहीं कर पाओगे, उनके प्रति कृतज्ञता के भाव रखो। जहाँ विचार-भेद समझ में आए वहाँ विचार भेद होने दो पर विचारों का टकराव न आने दो। 

मैं एक प्रसंग बताता हूँ, एक बड़ा होनहार युवक, बड़ा creative (सृजनात्मक) युवा, अपने माँ-बाप की प्रति बहुत गहरी श्रद्धा भी उसकी थी, चिन्ता भी करता लेकिन उसके पिताजी से उसके विचार बिल्कुल नहीं मिलते थे। स्थिति यह आ गई कि वह पिताजी से बातचीत करना भी पसन्द नहीं करता था। अन्दर से पिता भी दु:खी और बेटा भी दु:खी। महीनों एक दूसरे से बातचीत न हो। एक दिन उसके पिताजी ने मुझसे कहा कि महाराज एक ही बेटा है और इस तरह का व्यवहार करता है, मन बड़ा दु:खी होता है। मैं सोचता हूँ कि मैंने अपने जीवन के ५५ साल व्यर्थ कर दिये केवल अपने बच्चे के खातिर मैंने यह सब कुछ किया, आज वह मुझसे सीधे मुख बात नहीं करता, मुझे बहुत तकलीफ होती है। मैंने उसके बेटे से बात की। बेटे ने कहा, ‘क्या करें हमारी बात पर पापा जी कुछ बोलते हैं, हम कुछ बोलते हैं वो मानते नहीं हैं, तो फिर हमारी भी आदत हो गई हम उनकी बात को काटते हैं।’ हमने कहा “ये गलत है, पिता पिता है, तू अमीर बाप का बेटा है पर तेरे पिता ने गरीबी से अपने कैरियर की शुरुआत की, उन्होने अपने जीवन में अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव देखे, यदि वो तुझे व्यापार आदि में किसी कार्य में कुछ सलाह देते हैं तो वह बड़ों की अनुभवपूर्ण सलाह है, उसे तुम्हें मानना चाहिए। यदि नहीं मानता है, तो भी कोई दिक्कत नहीं, मैं तुम्हें बाध्य भी नहीं करता कि तेरे पिता जो कहे सो ही कर, एक चीज ध्यान में रख कि बड़ो का बहुमान करना चाहिए। हम लोगों के यहाँ शास्त्र में लिखा है कि गुरु अगर स्वाध्याय करा रहे हैं तो शिष्य तदाकार करें। ‘आप जो कह रहे हैं सही’, पहला वाक्य यही होना चाहिए। ‘आपने जो कहा सही कहा’, यह विनय का एक अंग है। तेरे पिताजी, तेरे जीवन दाता हैं। वो तुझे बेपनाह चाहते हैं, तुझे चाहिए कि उनका मान रख। उनका भी अपना एक ego (अहम) है और एक पिता की जो चाहत होती है वह उनके अन्दर है तुझे उसकी पूर्ति करनी चाहिए।” मैंने उसे ये बात समझाई और ये कहा कि “तुम इतना भर नियम ले लो कि तेरे पिताजी गलत कहें चाहे सही, सिरे से खारिज नहीं करेंगे, कहना ‘हाँ पिताजी, आपने कहा वो ठीक’ और उसके बाद अवसर देख कर कहो कि ‘पापा आपने ऐसा कहा, हमने कर तो लिया लेकिन इसमें यह प्रॉब्लम आएगी’, तू तीन महीना ऐसा प्रयोग करके देख फिर देख तेरा रिलेशन कैसा होता है।” क्योंकि पिता ने कहा था वह मेरी कुछ सुनता ही नहीं, मैं जो कहता हूँ उसको काटता है, मेरी बात पूरी नहीं होती और कह देता है, नहीं होगा तो उनके रिलेशन गड़बड़ थे। मैंने जब उसको समझाया, उसको बात समझ में आई और उसने यह नियम ले लिया कि मैं पिता की बात को कभी न कह कर के नहीं काटूंगा, वह जो बोले पहले हाँ। सुनकर के आश्चर्य होगा कि तीन महीने में ही उसके पिता का व्यवहार उसके प्रति बदल गया और आज दोनों बहुत आनन्द से जी रहे हैं, दोनों में बहुत अच्छा प्यार है। बड़ों की तुम जितनी इज्जत करोगे, बहुमान दोगे, उतना उनका वात्सल्य पाओगे और यह इज्जत करना तुम्हारा कर्तव्य है, धर्म है।

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