स्व प्रशंसा की भूख बढ़ने लगे, तो क्या करें?

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शंका

स्व प्रशंसा की भूख बढ़ने लगे, तो क्या करें?

समाधान

यह एक मनुष्य की दुर्बलता है। हर मनुष्य स्वप्रशंसा चाहता है। लेकिन बंधुओं में एक बात कहता हूँ, नीतिकार कहते हैं कि कोई मेरी प्रशंसा करें तो वह मेरी अच्छाई है और मैं अपने मुँह से अपनी प्रशंसा करूँ तो यह मेरी बुराई है। स्वप्रशंसा अच्छी बात नहीं मानी जाती। दूसरे प्रशंसा करें, प्रशंसा का भाव होना अलग है और प्रशंसा की भूख होना अलग बात है। 

शास्त्रों के अनुसार जो कापोत लेश्या के परिणाम वाले होते हैं वह आत्म प्रशंसा वाले होते हैं। आत्म प्रशंसा के करने को तीव्र कषाय का प्रतीक भी हमारे शास्त्रों में बताया। तो एक बहुत बड़ी दुर्बलता है, इससे बचो। क्योंकि यह स्वप्रशंसा की भूख मनुष्य को नीचे गिराती है। वह करणी अकरणी का विवेक भूल जाता है। इसके प्रति जागरूक होना पड़ेगा। और यह तब हो सकता है जब मनुष्य अपनी कमियों को देखना शुरू कर दें। दुनिया मेरे गीत गाती हैं पर क्या मैं उस लायक हूँ? अच्छाइयाँ सबको दिख सकती है, पर कमियाँ तो खुद को ही दिखती है। तुम अपनी कमीओंको देखने लगो तुम्हें इस बात का एहसास होने लगेगा कि अभी मैं कितना पीछे, कितना पीछे, कितना पीछे हूँ। और जो अपनी ख़ामियों को देखता है उसके ही जीवन में ख़ूबियाँ प्रकट हो पाती है। और जो अपनी खूबियों में झूम उठता है, उसके जीवन में फिर खराबियाँ खत्म नहीं होती, वह अपनी प्रगति नहीं कर पाता। तो इसके लिए एक अभ्यास करना होगा स्वप्रशंसा लोग करे करें, मैं अपने मन से यह ना चाहूँ कि कोई मेरी प्रशंसा करें। प्रशंसा की चाहत भी कदाचित क्षम्य हैं पर प्रशंसा की भूख बहुत खतरनाक होती है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो चाहते हैं कि मेरी प्रशंसा हो, और प्रशंसा हो। 

एक महानुभाव को मैं जानता हूँ, अपनी प्रशंसा पाने की भूख के चक्कर में उसने देखा कि समाज में दान देने से मेरा नाम होगा, लोग मेरी प्रशंसा करेंगे। एक बार दान दिया, नाम हो गया, बहुत अच्छा, लोगों ने बधाइयाँ दी। और दान दिया तो उसे अच्छा लगा। अब दो तीन चार बार उसने दान दें दिया। और दान दे दिया तो अब क्या हुआ जहाँ जाएं उसका परिचय कराया जाने लगा “यह बड़े दानी हैं, यह बड़े धर्मात्मा हैं, बड़े दानी हैं, बड़े धर्मात्मा हैं।” अब उनके मन में एक फितूर पैदा हो गया दानी और धर्मात्मा कहलाने का, बनने का नहीं। उस आदमी ने क्या करना शुरू कर दिया, जहाँ जाए वहाँ कुछ ना कुछ बोली बोल दें और बोली बोल दें, चुकाएँ नहीं। बोल दो; माँगने कौन आता है? 

आज समाज में ऐसे लोग हैं। बहुत सारे लोग जब हमारे पास संस्थाओं से जुड़े हुए लोग कहते हैं “महाराज जी, आज हम लोगों के पास रिकॉर्ड में नाम लिखा रहता है पैसा नहीं आता। कई तो ऐसे लोग भी होते हैं, जो बोली बोल जाते हैं detail लिखाते नहीं तो कमेटी वाले कांटेक्ट भी करें तो कहाँ से करें? नाम लिखा, पता नहीं, फोन नंबर नहीं। कांटेक्ट करें तो कहाँ से करें? फिर पैसा नहीं आता। ऐसा कभी करना नहीं। मैं बीच में बोल रहा हूँ, नहीं तो वही हाल होगा जो उस आदमी का हाल हुआ। 

कहीं भी कभी भी दान बोलो, जितने लोग इस कार्यक्रम को देख रहें हैं मैं सबसे कहना चाहता हूँ, कभी भी कहीं भी जाकर के दान बोलो तो वहाँ के कार्यालय में आप अपना नाम पता लिखवा दो और उन्हें एक रिक्वेस्ट करो कि “भैया, कुछ दिन बाद हमारे घर एक चिट्ठी भेज देना। ताकि हम भूल ना जाएं और मेरे द्वारा उदारता पूर्वक बोला गया दान आपके यहाँ पहुँच सके जिससे मैं कल्याण करूँ।” यह नियम बना लों। और घर जा कर के अपनी डायरी में नोट कर लों। ताकि तुम्हारे बाद तुम्हारे बाल बच्चों को भी पता लगे कि यह हमारे पिताजी की धर्मार्थ में देन दारी हैं। तो तुम्हारी पीढ़ियाँ उन्नति के शिखर को छुएगी। समझ गए? इस बात का सदैव ध्यान रखना। बहोत सारें लोग होते हैं जो दान देते हैं, भीड़ में दान बोल देते हैं, कार्यकर्ताओं की अपने एक सीमाएं रहती हैँ। तो वह लिखा नहीं जा सकता, प्रैक्टिकल नहीं है। तो यह तुम्हारी रिस्पॉन्सिबिलिटी है कि तुमने दान अपने कल्याण के लिए दिया। 

मैं उस महानुभाव की बात कह रहा था। अब प्रशंसा की भूख ऐसी बढ़ी कि जहाँ जाए कुछ ना कुछ घोषणा कर दें, कुछ ना कुछ घोषणा कर दें। लोग शुरुआत में तो बड़े प्रभावित हुवे और ऐसे लोगों से बड़े प्रभावित हो जाते हैं, जल्दी प्रभावित हो जाते हैं। अब हुआ यह कि कुछ दिन घोषणायें हुई। जब देखा कि वह घोषणायें तो कर रहा है, एक बार, दो बार, चार बार, जहाँ आए बिना पूछें ताछें, आदमी देखता है इसका स्टेटस तो ऐसा दिखता नहीं लेकिन घोषणायें कर रहा है, मामला क्या है? और जब दिखने लगा, हो पैसा तब तो दें। हर चीज की लिमिट होती है। पोल खुल गई तो बदनामी का शिकार होना पड़ा और कहना पड़ा इस आदमी की कोई बोली स्वीकार न की जाए। क्योंकि यह बोलते हैं देते नहीं। ऐसा हाल किसी का ना हो। 

इसलिए स्वप्रशंसा की भूख ऐसी ना बन जाए जो तुम्हारे जीवन को ही विकृति के गर्त में गिरा डालेँ। इसलिए इसके प्रति जागरूक होना चाहिए। अगर कोई हमारी प्रशंसा करें तो उस समय सही सदगुणी व्यक्ति की आँखें नम हो जाती हैं और लोग प्रशंसा तो अपने आप करते हैं।

चाहने वालों की प्रशंसा नहीं होती, जिन के अंदर अच्छाइयाँ होती हैं, फूल में जितनी सुगंध होती है वातावरण में उतनी ही तीव्रता से स्वतः खुलती है। इसलिए स्वप्रशंसा की भूख अच्छी नहीं। अपनी कमियों को देखोगे तभी इससे बच सकते हों।

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