मन्दिर की आम्नाय के संरक्षण के लिए क्या करें?

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शंका

मन्दिर की आम्नाय के संरक्षण के लिए क्या करें?

समाधान

यह आस्था का सवाल है। और इस विषय में मैं तो यह कहूँँगा कि जहाँ की जो आम्नाय या परम्परा चल रही है सब का कर्तव्य यह होता है कि उसे यथावत चलने दिया जाए, उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन न करें। क्योंकि जिन लोगों ने उसे बनाया उनकी भावनाएँ इससे जुड़ी हुई हैं। हमने बनाया नहीं, हम तो केवल उसकी देखभाल करने वालों में शुमार हैं तो हमारी पहली कोशिश होनी चाहिए कि जिसने बनाया और जिसके निमित्त से आज हमें धर्म ध्यान करने का सौभाग्य मिल रहा है हम उनकी भावनाओं का सम्मान करें, भावनाओं की रक्षा करें। ऐसा कोई कार्य नहीं करें जिससे उनकी भावनाएँ आहत हों। इसीलिए समाज के लोगों से मैं कहना चाहता हूँ, साधुओं को भी चाहिए कि कहीं की भी आम्नाय के परिवर्तन की बात न सोचें। 

मेरा कई जगह चातुर्मास हुआ जहाँ की आम्नाय भिन्न थी। मैंने कभी वहाँ की परम्परा के विषय में एक शब्द नहीं कहा। जहाँ की जो परिपाटी है वे अपना करें। मुझे जो पसन्द आया, वह मैं करूँगा। पहला प्रयास होना चाहिए कि हम आम्नाय को न बदलें, हम धर्म के मूल स्वरूप को समझें। पूजा पाठ हमारा धर्म नहीं, तत्वज्ञान मूलभूत धर्म है। रहा सवाल उस आम्नाय की रक्षा के प्रति आपकी प्रतिबद्धता का – तो वह आपकी जवाबदारी है। क्योंकि आपके कंधों पर किसी ने अगर कोई दायित्व सौंपा है, तो विश्वास के बल पर सौंपा है, और आपको उस विश्वास पर खरा उतरना चाहिए। जो ज़िम्मेदारी आपको दी गई है आपको उसको निभाना चाहिए। यदि लोग अपनी ज़िम्मेदारियों से इसी तरह विमुख होंगे तो कल तो सब तरह की गड़बड़ियाँ हो सकती हैं। वे बातें भी जीवन में जुड़ सकती हैं जो हमारे मूलभूत जैन धर्म के विरुद्ध हों। ऐसा नहीं होना चाहिए। लोगों को भी नहीं करना चाहिए और आपको भी उन बातों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। 

शंकाकर्ता – आचार्य श्री वर्धमान सागर जी से निवेदन करने गए थे। मेरे पिताजी उसे मौजूद थे। उन्होंने वर्धमान सागर जी महाराज साहब से निवेदन किया कि हमारी यह आम्नाय है और इस आम्नाय से आप आना चाहते हैं तो पधारिये। तो उन्होंने कहा कि साधु किसी बन्धनमें बांध कर नहीं जाता है, कहीं भी जा करके; लेकिन फिर भी क्योंकि मेरे भाव है कि केकड़ी विद्वानों की नगरी रही है, और यहाँ शुद्ध आम्नाय रही है, मेरे काफी भाव है फिर भी मैं आऊँगा और आपके किसी भी आम्नाय को डिस्टर्ब नहीं होगा। केकड़ी चंद्रपुर चैत्यालय में आए। उन्होंने महाराज जी एक भी, ऐसी कोई क्रिया – सब साधुओंको कह दिया की – यहाँ तक की प्रतिमाओंके चरण भी नहीं छुओगे। यहाँ की जो आम्नाय शुद्ध आम्नाय है, इन्होंने बनाई हुई है और उन्होंने वहाँ से ३७ या ३८ दिन महाराज जी और कहीं पर एक किशनगढ़ का कोई व्यक्ति और उसने फल चढ़ा दिया। उन्होंने कहा महाराज इस फल को उठाओ, जेब में रखो, यहाँ नहीं। 

महाराज श्री बात को मैं समझ गया – देखो, एक सही साधु की यही पहचान होती है कि वह समाज में सुलह कराये; समाज में झगड़े न कराये। छोटी-छोटी बातों में समाज में झगड़े होने लगे तो साधु का मतलब क्या हुआ? हम सब का एक ही लक्ष्य होना चाहिए, सब एक बने सब नेक बने। बात तो मैंने संक्षेप मैं कह दिया था। कभी किसी के आम्नाय और परम्परा को आप बदलने की कोशिश मत करो। आप भगवान की पूजा अर्चना करके अपना काम कर लो।

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