बुढ़ापे में कदम रखते हुए क्या लक्ष्य होना चाहिए?

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शंका

पीढ़ी-दर-पीढ़ी समय बदलने के बाद, बुढ़ापे की दहलीज़ पे कदम रखने पर अपने आप में बदलाव किस प्रकार लाना चाहिए।

समाधान

जैसे-जैसे शरीर में बदलाव आता है, वैसे-वैसे ही भावों में बदलाव आते रहना चाहिए। हम बचपन में यौवन की तरफ आते हैं, तब यौवन में एक ग्रोथ होती है; प्रौढ़ावस्था में आते हैं तो स्थिरता आती है; और वृद्धावस्था में आते ही शरीर ढलान की ओर जाने लगता है। खूब प्रयास करते हुए हम कितना भी शरीर को maintain (शरीर का रखरखाव) करें, इसे शिथिल होने से नहीं रोका जा सकता। बस आप समझ लीजिए कि हमने बचपन, यौवन और बुढ़ापे तक जिस प्रकार से शरीर की अवस्थाओं को देखा है, बुढ़ापे में आने के उपरान्त अपनी धर्म की अवस्था को विलोम क्रम से शुरू कर देना चाहिए। 

जैसे ही आप बुढ़ापे की दहलीज पर कदम रखें तो आप ये समझ लें कि हमारे पास समय बहुत कम है, काम अधिक है। मैं जितना अच्छे से अच्छा कर सकूँ, करूँ। अभी तक मैंने अपने जीवन के ६० साल / ७० साल में जो किया वह पर के लिए है। अब जो मैं करूँगा वह मेरे अपने लिए होगा। अभी तक जो संचित किया वह सब यहीं छूट जायेगा और अब जो संचित करूंगा, वह मेरे साथ जाने वाला है। मुझे यहाँ से खाली हाथ नहीं जाना है, भर कर जाना है। अपने जीवन को धर्म ध्यान में लगाओ, साधना में लगाओ, त्याग तपस्या में लगाओ और अपनी संचित सम्पत्ति का सदुपयोग करना शुरू करो, तब आपके जीवन का कल्याण होगा। इस तरीके से अगर आप अपने आपको कल्याण के रास्ते पर लगाना चाहते हैं, तो अपनी जीवन की धारा को उसी तरफ मोड़ने का प्रयास करना चाहिए। 

 उम्र ढलते-ढलते शरीर की ताकत कम होती है। हमारे यहाँ आगम में बताया है कि हमारे शरीर की संरचना कैसे होती है? केवल खाने पीने से नहीं होती है। हमारा शरीर चौबीसों घंटे विशिष्ट प्रकार के जो पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है, उससे टिकता है। इस विषय में बताया गया है कि हम एक अवस्था तक अपने शरीर में परमाणुओं को ग्रहण ज़्यादा करते हैं विर्सजन कम करते हैं। फिर एक अवस्था में दोनों बराबर चलता है। फिर एक अवस्था में ग्रहण कम होता है, विसर्जन ज़्यादा होता है। सिद्धान्त की भाषा में इसके लिये संघातन और परिसातन का नाम दिया है। षटखंडागम में ऐसा आया है। 

 धवला ग्रन्थ में तो कहा गया है कि जीवन के प्रारम्भिक दिनों में हम पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण ज़्यादा करते हैं और खर्च कम होता है, उससे हमारी ग्रोथ होती है। यौवन अवस्था आते-आते तक ग्रोथ बढ़ती है। प्रौढ़वस्था में आने के बाद वो मेन्टेन (स्थिर) होती है। जितनी आमदनी, उतना खर्चा! लेकिन बुढ़ापे में आते ही संघातन कम, परिसातन अधिक हो जाता है यानि आमदनी कम ख़र्चा ज़्यादा हो जाता है। ये समझ लो तुम कितना भी मेन्टेन करो, अब तुम्हारा शरीर छूटने ही वाला है। इसका तात्पर्य यह है कि अब तुम्हारा धंधा चौपट हो गया, आमदनी कम है ख़र्चा ज़्यादा है। कहते हैं –

आमद कम और खर्चा ज्यादा, लक्षण है मिट जाने का।

 कूवत कम और गुस्सा ज्यादा, लक्षण है पिट जाने का।

 मिटने से बचना चाहते हो तो अपने शरीर की शक्ति का अपव्यय रोको। जितना बन सके पुण्य संचय करो ताकि जीवन आखिरी क्षण तक व्यवस्थित रहे।

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