भावों से आर्यिका बनकर सामायिक करने में कैसी निर्जरा होती है?

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शंका

भावना भवनाशिनी” है, तो हम लोग भावों से आर्यिका बनकर सामायिक करें, तो हमारी निर्जरा कैसी होगी? सामायिक एवं ध्यान में क्या अन्तर है?

समाधान

भावों से आर्यिका बनकर यदि आप सामायिक करें, और सच्चे अर्थों में आपने सामायिक में अपने आपको आर्यिका बना लिया है, तो उससे निर्जरा ज़्यादा तो होगी, पर मेरा आपसे कहना है कि जब भावों से ही बनना है, तो आर्यिका क्यों न बनो, विशिष्ट निर्जरा क्यों न करो। आत्मा में डूब जाओ। जब भाव से ही बनना है, तो निम्न भाव से क्यों बनना? टॉप पर करो।

आचार्य समन्तभद्र महाराज ने सामायिक की महिमा बताते हुए कहा कि जब मुनि के समान एक गृहस्थ सामायिक करता है तो जिस समय वो सामायिक में लवलीन हो गया, अपनी आत्मा से जुड़ गया, संकल्प विकल्पों से, सारे आरम्भ परिग्रह से मुक्त हो गया, तो वस्त्र से ढके मुनि की तरह, वो गृहस्थ मुनिपने को प्राप्त हो जाता है। तो एक गृहस्थ जब यतीभाव को प्राप्त हो सकता है, तो तुम लोग आर्यिका भाव को तो प्राप्त कर ही सकते हो। इसमें कोई सन्देह की बात नहीं। भाव से वैसा बन सकते हो इसमें लब्धि स्थान बढ़ता है। सामायिक की महिमा बताते हुए कहा है कि दिनभर में तुम्हारे पाँच व्रतों में जो दोष रहते हैं, उन सारे दोषों का निवारण सामायिक की कालावधि में हो जाता है। तो इस तरीके से आप अपनी सामायिक का कार्य कर सकते हैं। 

सामायिक और ध्यान में क्या अन्तर है? ध्यान किसी एक विषय को लेकर एकांत में एकाग्र होने का नाम है। चित्त का किसी एक चीज पर एकाग्र हो जाना ध्यान है। आर्त-रौद्र ध्यान को त्याग कर शुभ में रम जाना सामायिक है।

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