गुरू के प्रति कैसा भय होना चाहिए?

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शंका

चातुर्मास के दौरान आपने सात प्रकार के भयों का वर्णन किया था, बड़े-बड़े भयों से तो हमें मुक्ति का रास्ता दिखला दिया, लेकिन गुरु के प्रति जो भय होता है उसके सन्दर्भ में बताइए?

समाधान

दो प्रकार के भय हैं- सकारात्मक व नकारात्मक। नकारात्मक भय से हमेशा हमें बचना चाहिए। जिन भयों से बचने की बात मैंने की वे सब नकारात्मक हैं। लेकिन सकारात्मक भय, जैसे आपको शेर से डर लगता है, शेर जैसे खूंखार प्राणी का नाम सुनकर के लोगों को कम्पन आती है; और अपने घर के बड़े जनों का डर लगता है। क्या दोनों का डर समान है? एक भय होता है नकारात्मक जहाँ केवल भय होता है; सकारात्मक भय वह है जहाँ प्रेम होता है। एक-जिससे हमें खौफ हो उससे डरते हों, दूसरा- जिससे प्रेम हो उससे डरते हों। दोनों डर में अन्तर है, गुरु के प्रति भय नहीं है, वहाँ तो प्रेम की अभिव्यक्ति है। जिसके प्रति प्रेम होगा उसके प्रति डर होगा। डर इस बात का नहीं कि ‘गुरु नाराज हो जायेंगे’, डर इस बात का कि ‘मुझसे गुरु की अवज्ञा न हो जाए क्योंकि वो महाउपकारी है। उन्होंने मेरे जीवन का निर्माण किया, उनके बल पर मेरे जीवन का उत्थान हुआ है। उनकी अवज्ञा मुझसे सपनें में भी नहीं होना चाहिए। मेरे द्वारा ऐसा कोई कृत्य नहीं होना चाहिए जिससे कभी उनकी गरिमा खंडित होती हो या कभी उनको मेरे परोक्ष में सोचने को बाध्य हो जाना पड़े कि प्रमाण सागर ने यह क्या कर दिया।’ ये डर मुझे चौबीस घंटा आज भी सताता है, सताता नहीं मेरे अन्दर पनपता है और मैं इसको पुष्ट करता हूँ। जब तक ये डर बना है तभी तक विनय होगा, जिस दिन यह डर खत्म, संकोच खत्म, विनय खत्म हो जाएगी। इसलिए विनय को बनाए रखने के लिए ऐसे डर से ही संसार से पार उतरा जाएगा।

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