तपस्वी में वात्सल्य भाव, परिवार में मोह क्यों?

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शंका

गुरु शिष्य सम्बन्ध और संघस्थ तपस्वी जनों से जो पारस्परिक सम्बन्ध हैं, उनको वात्सल्य भाव कहा जाता है। अनुराग को वात्सल्य भाव कहा जाता है। मगर परिवार में पिता-पुत्र और पारिवारिक सम्बन्धों को मोह कहा जाता है, तो ऐसा क्यों है? हमारे पारिवारिक सामाजिक सम्बन्धों को मोह से रहित और वात्सल्य से संपन्न कैसे करें?

समाधान

सम्बन्ध, सम्बन्ध हैं, लेकिन मोह और राग में एक अन्तर है। साथ रहना राग है और चिपक कर रहना मोह है। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध, साधर्मी जनों का सम्बन्ध, नदी और नाव के सम्बन्ध की तरह होता है। हम लोग साथ रहते हैं, इस बात के अहसास के साथ साथ कि हम सब का पता ठिकाना अलग-अलग है। साथ रह कर भी हम सब अलग-अलग हैं। इस बात की अनुभूति हमें २४ घण्टे होती है। इसलिए यह राग मोह का रूप नहीं ले पाता। लेकिन घर परिवार के सदस्यों का जो एक दूसरे के साथ जुड़ाव होता है, वह इस प्रगाढ़ होता है, आत्म बुद्धि हो जाती है एक दूसरे के साथ। एकात्मता का भाव होता है, तो राग मोह का रूप लेता है। हालाँकि, सम्यग्दृष्टि को मोह नहीं होता, उसे राग होता है। जो भेद विज्ञान से जुड़े होते हैं उन सम्यग्दृष्टियों के घर परिवार में रहते हुए भी अपनी अलग पहचान बने रहने के कारण वो अपने आप को सबसे अलग महसूस करते हैं, तो उसे राग कहेंगे, मोह नहीं। 

राग भी दो प्रकार का होता है। एक धर्मानुराग और एक विषयानुराग। घर परिवार में रहने वाले लोगों के एक दूसरे के साथ सम्बन्ध होते हैं वह धर्म के सम्बन्ध नहीं स्वार्थ के सम्बन्ध होते हैं, विषयों के सम्बन्ध होते हैं। इसलिए इसे हम विषयानुराग प्रेरित सम्बन्ध मानते हैं। हम साधु-सन्तों का गुरु शिष्य परम्परा में या साधार्मियों के साथ या श्रावकों के साथ रागानुबन्ध  होता है वह केवल धर्म की भावना से जुड़ा हुआ होता है। तो जहाँ विशुद्धतया धर्मानुराग है उसका नाम वात्सल्य है और जहाँ धर्म अनुराग नहीं है वहाँ राग-राग है। जो संसार को बढ़ाने का कारण है। अशुभ राग है विषयानुराग है। राग की दृष्टि से एक राग है हमारे अन्दर के आग को बुझाने में कारण है। एक राग है हमारे अन्दर की आग को बढ़ाता है। विषयानुराग हमारे अन्दर की आग को ज्वाला का रूप देता है। धर्मानुराग हमारे अन्दर के राग की आग को शान्त करता है। गुरुदेव ने एक बात बहुत अच्छी कही कि सन्तजनों का राग भी संसार के ताप को शान्त करने में कारण बनता है। जल कितना भी गरम क्यों न हो, आग को बुझाने की शक्ति उसमें कायम रहती है यह धर्मानुराग है जो हमारे संसारी राग की आग को बुझाता है। 

मोह को वात्सल्य में परिवर्तित कैसे करें? सबसे पहले तो मोह को खत्म करना है। मोही जीव वात्सल्यमयी नहीं हो सकता। जहाँ मोह है, वहाँ पर में आत्म बुद्धि है। एक्क भाव है, मोह यानि दर्शन। राग को वात्सल्य में परिवर्तित किया जा सकता है, यदि हम राग की धारा को मोड़ दें। निरपेक्ष भाव से यदि किसी के साथ जुड़ाव रखते हैं, तो वही राग वात्सल्य बन जाता है। वही राग भक्ति बन जाता है, वही राग प्रेम बन जाता है। लेकिन जब कुछ रिटर्न की अपेक्षा होती है, तो राग राग हो जाता है। घर परिवार में जो राग होता है वह गिव एँड टेक के साथ ज़्यादा होता है। इसलिए वह राग राग के रूप में रहता है, वात्सल्य का वास्तविक रूप नहीं ले पाता।

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