“को-एजुकेशन” की हमारे चरित्र निर्माण में क्या भूमिका है?

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शंका

वर्तमान शिक्षा प्रणाली में “को-एजुकेशन” (co-education) की हमारे चरित्र निर्माण में क्या भूमिका है?

समाधान

चरित्र को बिगाड़ने का प्रबल प्रमाण ही को-एजुकेशन (co-ed or co-education) है। अक्सर बहुत सारे लोग इससे सहमत न हों, ऐसी सोच वालों को ‘दकियानूसी’ या orthodox भी कहें, पर ये जीवन की सच्चाई है। सह-शिक्षा की इस प्रवृत्ति ने हमारे समाज के स्वरूप को बहुत विकृत कर दिया है। लोगों का चरित्र एकदम घिनौना हो चुका है। युवक एवं युवती एक लम्बे समय तक साथ पढ़ते हैं, उठते-बैठते हैं तब उन दोनों के सम्पर्क से ऐसी नजदीकियाँ बढ़ती हैं, कि सारी मर्यादाएँ टूट जाती हैं। हमारे यहाँ जो सामाजिक मर्यादाएँ थी, और विवाह पूर्व की जो वर्जनाएँ थीं वो सब विनष्ट हो गई हैं। उसके पीछे सह शिक्षा एक बड़ा कारण है। इसलिए हमें लड़के लड़कियों की अलग-अलग शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का संसर्ग होने से मर्यादाएँ टूटती हैं। 

आज के युग में उन्मुक्त यौनाचार की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं। उसके पीछे ये बहुत बड़ा कारण है और दुर्भाग्य है कि ‘लिव्ह-इन रिलेशनशिप’ जैसी बातों की लोग वकालत करने लगे हैं। बड़े-बड़े सेलिब्रिटी भी विवाह पूर्व और विवाहेतर संबंधों को मान्य करार देने लगे हैं, जिससे आज हमारे युवक और युवतियाँ दिशा हीन होकर के भटक रही हैं। उसके बड़े दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। इसलिए ऐसे शिक्षा संस्थानों को हमें विकसित करना चाहिए, जहाँ लड़के और लड़कियों की पृथक-पृथक व्यवस्था हो, और वे अपने संयम की, मर्यादा पूर्वक रक्षा करते हुए अपने जीवन को आगे बढ़ा सकें। 

आचार्य गुरुदेव का ध्यान इस तरफ गया, इसलिए उन्होंने प्रतिभास्थली जैसे विद्यालय की शुरुआत की, जो आज लड़कियों के लिए बहुत ही अच्छा संस्थान है। जहाँ पढ़ने वाली लड़कियाँ गुणात्मक शिक्षा के साथ संस्कार उपार्जित कर रही हैं। हमारे शास्त्रों में मुनियों को भी अति संसर्ग से दूर रहने की प्रेरणा देते हुए कहा, कि यदि अधिक संसर्ग होगा तो मन भटक जायेगा। तरुण अवस्था में इन्द्रियों का निग्रह करना बहुत कठिन होता है। जब युवक युवतियाँ लम्बे समय तक एक दूसरे के साथ रहते हैं, तो उनका मन भटके बिना नहीं रहता। इसी भटकाव के कारण कई बार चारित्रिक पतन देखा जाता है। 

आज कल तो स्थितियाँ ऐसी हो रही हैं कि ज्यादातर लोग पतित हो रहे हैं। बच्चे जब मेरे पास आकर अपनी आलोचना करते हैं तब लगता है कि समाज बहुत दिशाहीन हो रहा है। लेकिन तब बहुत विलंब हो जाता है। कच्ची उम्र में खुला वातावरण प्राप्त होता है तब व्यक्ति इन सब बातों में सारासार विचार नहीं कर पाता है। आजकल पूरा का पूरा माहौल ही विपरीतता से भरा है। ऐसे समय में अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए ‘काजल की कोठरी से बेदाग निकलने’ जैसा कठोर पुरुषार्थ करना होता है। अतः ऐसे संस्थानों को प्रवर्तित करना चाहिए।

एक सज्जन, जो बहुत सारे colleges चलाते हैं, उनके कॉलेज के ग्रुप हैं, उनसे मैंने कहा कि आप लड़कियों के लिए अलग से उच्च शिक्षा की व्यवस्था करो। बोले- ‘महाराज! मैंने एक पहल की थी उसमें admission (प्रवेश) ही नहीं आया। आज लड़कियाँ नहीं चाहती कि वह लड़कियों के अलग से कॉलेजों में पढ़ें। उनको भी को-एजुकेशन में ज़्यादा रस आता है।’ ये जो सह शिक्षा के प्रति इतना झुकाव है इसका तात्पर्य कहीं ये भी हो सकता है कि पढ़ाई के साथ लोगों का ध्यान मौज मस्ती पर ज़्यादा बढ़ता जा रहा है। वह हमारे चरित्र को गिरा रहा है। इसके प्रति बहुत सावधानी की जरूरत है।

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