जैन दर्शन में भक्ति, ध्यान और योग का क्या स्थान है?

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शंका

जैन दर्शन में भक्ति, ध्यान और योग-यह तीनों किस प्रकार से जुड़े हुए हैं और किस प्रकार से अलग-अलग हैं?

समाधान

जैन दर्शन में योग को स्थान दिया गया हैं पर हमारे यहाँ दो चीजें हैं – योग और उपयोग। योग शुद्धि से भी ज़्यादा उपयोग शुद्धि को बल दिया गया। योग शुद्धि को हम, अगर चालू भाषा में कहें तो, भाव विशुद्धि कहेंगे और उपयोग शुद्धि का मतलब परिणाम शुद्धि, अभिप्रायों में शुद्धि।

जैन साधना में ध्यान को सर्वोच्च स्थान दिया गया। ध्यान के साधन के रूप में योग को भी लिया गया। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि। यह जो बातें हैं, अष्टांग योग को हमारे ज्ञानवर्णोंकार आचार्य शुभचंद्र ने भी उल्लिखित किया। लेकिन जैन परम्परा में योग को उतनी प्रमुखता नहीं दी गई जितनी पतंजलि आदि में दिया गया। वहाँ योग: कर्मसु कौशलम् जैसी बात कही गई। जैन परम्परा में कहा गया है कि “ज्ञान के बल पर अपने चित्त को स्थिर करो और ज्ञान की स्थिरता का नाम ही ध्यान हैं” और भावना योग को जैन साधना में सर्वोच्च स्थान दिया गया। जैसे आत्मा का ध्यान करना हैं, तो सोहम् की भावना भाओ। “मैं शुद्ध आत्मा हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ, मैं शुद्ध आत्मा हूँ; और मैं देहातीत हूँ, मैं इन्द्रियातीत हूँ, मैं विषयातीत हूँ, निरंजन हूँ, ज्ञान स्वरूप हूँ, चिदात्मक हूँ, चेतन हूँ, आनन्द रूप हूँ”- जो अपनी आत्मा का स्वरूप हैं उसकी भावना को भाओ, उसमें डूबो। और भाते- भाते इतना लीन हो जाओ कि शरीर में रहते हुए भी शरीरातीत, देह में रहते हुए भी अपने आपको देहातीत अनुभव कर सको। देह में देहातीत अनुभूति का नाम ही जैन साधना में परम ध्यान है, इसे शुद्धोपयोग कहा गया। जिस दशा में किसी भी प्रकार का राग-द्वेषमयी विकार न हो। वहाँ तक पहुँचने के लिए सतत् भावना भाओ। तो जैन साधना मूल रूप से भावना प्रधान हैं। मैंने सबका तुलनात्मक अध्ययन किया। 

अभी मनोविज्ञान में कुछ रिसेंट रिसर्च हुए, उनको देखकर लगा कि हमारे जैनाचार्य बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक थे। अभी अवचेतन मन की शक्तियों पर बहुत काम हुआ हैं और सीक्रेट वगैरह बातें प्रकाश में आई हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे सबकॉन्शियस में जो विचार फीड होते हैं वही हमारे कॉन्शियस माइंड में प्रकट होते हैं और उससे हमारे जीवन का निर्धारण होता हैं। और एक सिद्धान्त बना “थॉट्स बिकम थिंग्स” (Thoughts become things) और इस आधार पर लोग आज लोगों को कहने लगे कि तुम जो चाहो, वैसा सोचो वह मिल जाएगा। तुम्हें धन चाहिए तो सोचो मुझे धन चाहिए, तुम्हें करोड़ चाहिए तो करोड़, लाख चाहिए तो लाख, सोना चाहिए तो सोना, चाॅंदी चाहिए तो चाॅंदी, जो तुम्हें चाहिए उसको तुम बार-बार सोचो, वह मिलेगा। यह एक सिद्धान्त हैं। जैन साधना में यही कहा गया, कि “तुम जैसी भावना भाओगे वैसा होगा। 

यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी॥”

तुम जैसी भावना भाओगे, वैसा होगा। तो हमारे यहाँ संसार की भावना भाने की जगह आत्मा की भावना भाने की बात की है। तुमने अभी तक अनादि के जन्मजात संस्कारों के परिणाम स्वरूप अपने आपको देह रूप ही माना हैं, देह रूप ही जाना है, और देह रूप ही अनुभव किया। सदेह अनुभूति होने के कारण तुम शरीर में इष्टा-निष्ट संकल्प-विकल्प करते रहो; और “मैं सुखी, मैं दुखी, मैं राजा, मैं रंक, मैं अमीर, मैं गरीब, मैं स्त्री, मैं पुरुष”- यह पर्याय बुद्धि बनी रहेगी। अगर तत्वज्ञान पाओ और उसके बल पर बार-बार भावना भाओ, “नहीं यह तो बाहर का चोला हैं, यह तो मैं हूँ ही नहीं।” तो इसकी भावना बार-बार भाने से तुम्हारे सबकॉन्शियस में यह बात जब पूरी तरह फीड हो जाएगी तो अभी तो तुम्हें भावना भाना पड़ रहा हैं, जब गहरे उतर जाओगे तो उसकी अनुभूति होने लगेगी। वही अनुभूति परमात्मानुभूति है जो केवल-ज्ञान का बीज है, परम ध्यान है, तो यह साधना है। 

“सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः। तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ॥

समाधि तन्त्र / आचार्य पूज्यपाद /श्लोक २८

मैं क्या हूँ- शुद्ध आत्मा। ‘सोहम्’ शब्द जैनों का बहुत प्राचीन शब्द हैं। छठवीं शताब्दी में आचार्य पूज्यपाद ने “समाधि तन्त्र” नामक ग्रन्थ में जैन साधना का उल्लेख करते हुए कहा- “मैं क्या हूँ? शुद्ध आत्म तत्व, शुद्ध ज्ञाता, दृष्टा, चेतन आत्मा हूँ।” उसकी भावना बार बार भाओ, उसकी आवृत्ति (frequency) जितनी गाढ़ी होगी आपका ध्यान उतना प्रगाढ़ होगा और जितनी प्रगाढ़ता से आप ध्यान करेंगे, उतनी शीघ्रता से कर्म निर्मूल होंगे और कर्मों के निर्मूलन होते ही हम परमात्मपनें को प्राप्त कर जाएँगे। भक्ति आदि को साधन के रूप में कहा गया हैं; यह प्रवृत्ति का धर्म हैं और ध्यान निवृत्ति का धर्म हैं। तो हमारे यहाँ निवृत्ति को प्रमुखता है, प्रवृत्ति को गौण कहा है।

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