जाति प्रथा का क्या इतिहास है?

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शंका

भारतवर्ष में सदियों से जाति प्रणाली चली आ रही है, इसके पीछे क्या कोई भव्य और बड़ी सोच रही है?

समाधान

जाति व्यवस्था हमारी सामाजिक व्यवस्था है। जब हम भारत के प्राचीन इतिहास को देखते हैं तो पुरातन काल की वर्ण व्यवस्था कालान्तर में बदलते-बदलते जाति व्यवस्था हो गई। जब हम विभिन्न जातियों के इतिहास को पलट करके देखते हैं तो प्राय: किसी भी जाति में खून के रिश्ते से जाति का सम्बन्ध नहीं है।मैं वर्तमान की जातियों की चर्चा कर रहा हूँ। सभी जातियाँ किसी घटना के कारण एक साथ धर्म में दीक्षित हुई और उनकी अलग जाति बना दी गई- जैसे खंडेलवाल जाति- खंडेलगिरी के काल में, खंडेलगिरी जिस दिन जैन धर्म में दीक्षित हुआ, उसकी 84 रियासतें, सब की सब जैन धर्म में दीक्षित हो गईं। उन सब की जाति का नाम खंडेलवाल जाति हो गया और अलग-अलग रियासतों के नाम से उनके अलग-अलग गोत्र बन गए। इसी तरह अगरवा से अग्रवाल, गोलागड से गोलालारे और गोलापुरम, जैसलमेर से जयसवाल, अन्य -अन्य अनेक जातियाँ हुई हैं उन सब का इतिहास प्राय: यही मिलता है। कुल के वर्णन में ईक्ष्वाकु कुल और अन्य अनेक वर्णन हमारे पुराणों में मिलते हैं। उनका रक्त सम्बन्ध से जुड़ाव मिलता है। वर्तमान में जो जातियाँ हैं उनका कभी कोई रक्त सम्बन्ध रहा है, ऐसा नहीं। 

लेकिन जब हम अपने पूरे इतिहास को पलटते हैं, जैन संस्कृति के इतिहास को भी पढ़ते हैं तो ऐसा लगा कि मध्यकाल के पूर्व आते-आते हमारी जाति व्यवस्था बहुत मजबूत हो गई, यह जातिगत व्यवस्था आचार्य कुन्दकुन्द के काल में भी आ चुकी थी। आचार्य कुन्दकुन्द ने एक जगह लिखा है

ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुतो।

को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेय सावओ होइ।।

उन्होंने कहा कि “न तो देह की वन्दना होती है न कुल की होती, न जाति की।” यहाँ उन्होंने जाति शब्द का उल्लेख किया है। इसी तरह एक आचार्य की योग्यताओं के बीच बात करते हुए लिखा- 

देस-कुल-जाइ-सुद्धा, विसुद्ध मणवयणकाय संजुत्ता।

तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थु में णिच्चं।।

देश, कुल और जाति से जो शुद्ध है, वह आचार्य हो सकते हैं। तो ये दिखता है कि आचार्य कुन्दकुन्द के काल में भी हमारी समाज पर जाति की व्यवस्था हो गई थी। सात परम स्थानों में जातीत्व भी एक है। 

तो जातियाँ पुरातन काल से हमारे यहाँ हुई हैं और हम इतिहास के सदृश्य से कहें तो आचार्य कुन्दकुन्द के पूर्व ही यह जातियाँ उत्पन्न हो गई थी। खंडेलवाल जाति, परवार जात आदि जितनी भी हमारी प्राचीन जातियाँ है, बहुत पहले उत्पन्न हो गई थीं। जातियों से एक परम्परा, एक इतिहास का सम्बन्ध जुड़ा था और उसे सुरक्षित रखने में कोई दोष नहीं। जाति बुरी नहीं है, जातीयता बुरी है। जातियाँ रहें, जातीयता का भाव मन में न रहे। अगर हमारी जातियाँ सुरक्षित रहेंगी तो हमारा इतिहास भी सुरक्षित होगा क्योंकि हर जाति का अपना अपना इतिहास है, लेकिन जातीयता की भावना मन में नहीं आनी चाहिए।

 “हम -ये -तुम -वो” -ये बातें कतई उचित नहीं है। यह हमारे समाज के विनाश का कारण है। हालाँकि वर्ण के बाद जाति की प्रमुखता हुई, अब तो जातियाँ भी खत्म हो गईं। अब धर्म भी खत्म होता जा रहा है। यह समाज में होते हुए ह्रास का परिणाम है। हमारे यहाँ वर्ण लाभ की बात की गई, वर्ण संकर की बात नहीं की गई है, तो जातियों की जहाँ जो परिपाटी चल रही है, चलने देना चाहिए पर जातीयता को नहीं लाना चाहिए। इस जातीयता के कारण हमारा बड़ा नुकसान भी हुआ। कई जातियाँ हमारी जातिवादी मानसिकता के कारण लुप्त हो गईं। हमारे जैन समाज में यहाँ अनेक जातियाँ हैं, जिनमें एक अग्रवाल जाति है।। एक अग्रवाल समाज, अग्रवाल जाति है। अग्रवाल जाति में बहुत से अग्रवाल जैन हैं और बहुत से अग्रवाल वैष्णव हैं। अग्रवाल जाति में एक व्यवस्था बनी, जाति व्यवस्था के कारण कि वे अपना सम्बन्ध अग्रवाल से ही करेंगे, गैर अग्रवाल जैन से नहीं करेंगे। अब उनका एक ही गोत्र खासकर गर्ग और गोयल, यह दो ही अग्रवाल जो जैन रहे हैं, उनको अपना सम्बन्ध वैष्णव से करना पड़ा। एक लंबे समय तक गंगा-जमुनी संस्कृति दोनों के मध्य चलती रहे, लेकिन धीरे-धीरे आज जैसी व्यवस्था बदल गई। पिछले 50 से 100 वर्षों में हजारों अग्रवाल जैन परिवार जैन धर्म से विमुख हो गए, वैष्णव हो गये। क्योंकि उनका रोटी-बेटी का व्यवहार वहीं था। इधर हमारे यहाँ अगर किसी एक अग्रवाल जैन ने किसी गैर अग्रवाल जैन से शादी कर ली तो धर्म विरुद्ध घोषित कर दिया गया। उनसे मुनि लोग आहार लेने का निषेध करने लगे। हालाँकि हमारे गुरुदेव ने इस परम्परा को कभी प्रश्रय नहीं दिया। उनकी बड़ी कृपा है, समाज पर इसकी। तो मुनियों ने उन्हें आहार देने से वंचित कर दिया। नतीजा यह निकला कि उन्हें उनके साथ सम्बन्ध करना पड़ा। धीरे- धीरे वे धर्म विमुख हो गए। उनमें वे परिवार भी है जिन्होंने बड़े-बड़े मन्दिर बनवाए। मैंने कोलकाता में देखा, कोलकाता में अग्रवाल समाज बहुत अग्रणी समाज रही। कोलकाता के जितने भी प्राचीन मन्दिर है, नए 1-2 मन्दिरों को छोड़कर, सब अग्रवालों के द्वारा बनाए गए। बेलगछिया का मन्दिर भी एक अग्रवाल ने बनवाया है, उल्हासीराम जी ने बनाया। लेकिन उनके घर में भी आज कोई णमोकार जपने वाला नहीं। सब धर्म से विमुख हो गए। वजह – विवाह की यह कुप्रथा, जातिवादी आग्रह का दुष्परिणाम- उससे यह हुआ कि लोगों ने देहाश्रित जाति को प्रमुखता दी, आत्मा से धर्म को भुला दिया; जबकि होना यह चाहिए कि जाति तो कोई भी हो, शाश्वत नहीं, हम जाति छोड़ दें पर धर्म न छोड़ें। आत्मा से धर्म को सुरक्षित करें। 

2013 में हमारा वहाँ चातुर्मास हुआ, उससे पहले 2005-2006 में हमारा जब प्रवास था, तब हमने ये अभियान जोड़ा था, काफी लोग वापस जुड़े। तीन-चार सौ परिवार वापस मुख्यधारा में जुड़े। और मेरे पास जो सूची आई थी यह महेंद्र जी सरावगी यहाँ बैठे है। वे अग्रवाल समाज से सम्बन्ध रखते हैं और उन्होंने इस वेदना को बहुत नजदीकी से देखा है। 3000 जैन परिवार वैष्णव हो गये। ऐसे आज भी अनेक जातियाँ विलुप्त हुई, दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में। मैं समझता हूँ आज के समय में जाति का आग्रह करना बेवकूफी है। धर्म को संभालने की कोशिश जरूर करनी चाहिए।

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