हिंसा और आत्मरक्षा में क्या अन्तर है, आज के पर्यावरण में लड़कियों को अपनी आत्मरक्षा के लिए हिंसा करनी पड़े तो क्या पाप का बन्ध होगा?
हिंसा और आत्म-रक्षा में अन्तर? हिंसा है Offence (अपराध) और आत्मरक्षा है Defence। आक्रमण और प्रतिरक्षा दोनों में अन्तर है। संस्कृति आक्रमण का निषेध करती है पर अपने बचाव के लिए यदि हम आक्रमण करते हैं, रक्षा के उपाय करते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। रामचंद्र जी ने रावण के संहार के लिए युद्ध लड़ा। रावण का वध हुआ देखा जाए तो एक प्रकार की हिंसा हुई। युद्ध हिंसा है फिर भी वह हिंसा नहीं है। राम जी का उद्देश्य लंका को छीनना नहीं था अपितु अपनी सीता को बचाकर अनेक सीताओं के शीलहरण को रोकने का बचाव था। इसलिए उन्होंने जो आक्रमण किया था वह आक्रमण नहीं था। आखिरी क्षण तक वो यही कहते रहे कि तुम सीता को लौटा दो, हमें कुछ नहीं चाहिए। बाद में उन्होंने वहीं किया- लंका को जीतने के बाद विभीषण को राज्य सौंप दिया, खुद नहीं लिया। ऐसे ही अपने साथ ये करना चाहिए। यदि कोई स्त्री अपने शील, संयम की रक्षा के लिए किसी का प्रतिकार करती है, तो उसे हमारे धर्म के हिसाब से कहीं भी दोष नहीं कहा गया। हमारे यहाँ चार प्रकार की हिंसा कही गयी है। संकल्पी हिंसा, आरम्भी हिंसा, उद्योगी हिंसा और विरोधी हिंसा- ये चार प्रकार की हिंसा है।
- आरम्भी हिंसा- आपके घर गृहस्थी के कार्यो में जो हिंसा होती है वह आरम्भी हिंसा है।
- उद्योगी हिंसा- आपके व्यापार व व्यवसाय के निमित्त से जो हिंसा होती है उसको बोलते हैं उद्योगी हिंसा।
गृहस्थ के लिए आरम्भी और उद्योगी हिंसा में यथा सम्भव संयम रखने की बात कही गई है और संकल्पी हिंसा की प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग करने की प्रेरणा दी गई है।
- विरोधी हिंसा- अपने कुटुम्ब, परिवार व स्वयं के अस्तित्व और अस्मिता पर यदि कोई आघात पहुँचाये तो उससे बचने के लिए जवाबी कार्यवाही में हिंसा करना ये विरोधी हिंसा है।
विरोधी हिंसा वस्तुतः गृहस्थ के लिए हिंसा नहीं है। वह हिंसा करता नहीं, हिंसा उसे करनी पड़ती है। वह अहिंसा के लिए हिंसा है। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। इसलिए जैन धर्म में विरोधी हिंसा को एक गृहस्थ के लिए क्षम्य कहा गया है और उसे अपनी भूमिका के अनुरूप देखना चाहिए।
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