भाव और भावुकता में क्या अन्तर है?

150 150 admin
शंका

जैन धर्म में भाव है या भावुकता है?

समाधान

भाव और भावुकता को पहले समझो कि भाव क्या है और भावुकता क्या है? भाव यानि हमारे अन्तरंग में उत्पन्न होने वाली धारा और भावुकता यानी उस धारा का वेग है। पहले भाव होगा फिर भावुकता होगी। तो भाव जब तक एक दायरे में रहता है तब तक एक भाव है और भाव जब ज़्यादा तेज हो जाये तो वह भावुकता है। भावना होनी चाहिए धर्म भावना से। आपके अन्दर भावना नहीं होगी तो मन नहीं भीगेगा। ये बात ध्यान रखना- बुद्धि से धर्म नहीं होता, भावना से धर्म होता है! क्योंकि धर्म एक साधना मूलक और उपासना मूलक क्रिया है। साधना और उपासना भावना होती है। 

फिर इस भावना के साथ ऐसा न हो कि आदमी बहता ही जाये। उसके साथ थोड़ा बुद्धि का (प्रवेश) होना चाहिए। पर व्यक्ति यदि जरूरत से ज़्यादा बुद्धिवादी होगा तो वह हर चीज में तर्क और वितर्क लगायेगा। आप भगवान के दर्शन करने के लिए जाते हो? मन्दिर में विराजमान जो भगवान हैं वे भगवान आपकी भावना के भगवान हैं या आपकी बुद्धि के हैं? ये भावना के भगवान हैं। यदि आप बुद्धि लगाओ कि भगवान तो मोक्ष चले गये। लौट के आ ही नहीं सकते। वे अनंत-अनंत काल के लिए सिद्धालय में पहुँच गये, इसलिए भगवान को क्या पूजें? तो क्या बुद्धि आपको पूजने देगी? नहीं पूजने देगी। बुद्धि हमारी अन्दर की भावना को सुखा डालती है। इसलिए धर्म का कार्य जो होता है वह भावना मूलक ही होता है। 

अब रहा सवाल भावुकता का- क्या भावुकता अच्छी है? भावुक व्यक्ति कभी-कभी बह जाता है। नदी की शोभा कब होती है? जब नदी में मर्यादित धारा होती है तब या नदी में बाढ़ आती है तब? भावना का सम्पुट हमारे अन्दर हो तब तक कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जब भावना की बाढ़ आ जाये तो मामला कभी-कभी गड़बड़ा जाता है। ऐसा व्यक्ति अतिवादी हो जाता है और उससे उसके जीवन का सामंजस्य बिगड़ जाता है। इसलिए धर्म के क्षेत्र में भावना अच्छी रखो लेकिन भावुकता के आवेग में धर्म के क्षेत्र में कदम न बढ़ाओ। 

भावुकता हमेशा नहीं रहती है भावना स्थाई रहती है। भावुकता तो दो-तीन दिन की होती है फिर ठंडी हो जाती है। लेकिन भाव की जो धारा है वह स्थाई बनी रहती है। इसलिए भाव के आधार में धर्म की आराधना करो। भावुकता के वेग में कभी बहने का प्रयास मत करो।

Share

Leave a Reply