जीव, आत्मा और परमात्मा तीनों में क्या अन्तर है? संचित कर्मों को गलाने की तकनीक!

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शंका

प्र.1. जीव, आत्मा और परमात्मा तीनों में क्या अन्तर है?

प्र.2. कर्म संचय यानी प्रारब्ध, संचित और क्रियामान तीनों क्या भुगतने ही पड़ेंगे? क्या इसको नाश करने की कोई स्पेशल टेक्निक है?

अजय सोमानी, अजमेर

समाधान

उ.1. स्थूल रूप से हमारा यह रूप, जो दिख रहा है, जीव है; जिसके साथ जीवन है, प्राण है वह जीव है। लेकिन उस प्राण को धारण करने वाली आत्मा हमारे भीतर का तत्त्व है। आत्मा नाना योनियों में विचरती है; जैसे आज मनुष्य, कल पशु है। 

जैन दर्शन में जीवात्मा और आत्मा को भिन्न-भिन्न नहीं कहा गया। लेकिन अन्य दर्शनों में इस बाह्यरूप को, जो दृष्टिगोचर, दृष्टिमूर्त जीवन हमें दिखता हैं उसको जीव कह देते हैं। अन्दर के तत्त्व को आत्मा कहते हैं और इस आत्मा का शुद्ध स्वरूप परमात्मा है। जैसे- धान आत्मा है, चावल परमात्मा हैं। जब धान का निरावरण करते हैं तब चावल निकलता है। हमारे भीतर जब तक कलुषता है, विकार है हम आत्मा हैं। हमारे अन्दर के विकार दूर हो जाए, कलुषता दूर हो जाए तो हम ही परमात्मा हैं। जैन धर्म के अनुसार “अप्पा सो परमप्पा” आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा से भिन्न किसी परमात्मा का अस्तित्त्व नहीं। विकारों से बिगड़ा हुआ रूप आत्मा है और निखरा हुआ रूप परमात्मा है।

उ.2. जैन दर्शन यह कहता है कि हमारे पास बहुत आजादी है कि हम अपने संचित कर्मों को बहुत अंशों में नष्ट भी कर सकते हैं, यह हमारा पुरुषार्थ है। कई बार प्रारब्ध जब प्रतिकूल होता है, तो हमारा पुरुषार्थ चाह करके भी अनुकूल नहीं बनता, लेकिन हम अपने पुरुषार्थ को जगा कर अपने प्रारब्ध और संचित कर्म को भी नष्ट कर सकते हैं। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार हमारे भीतर के संचित कर्म को सत्ता कहा जाता है। तपस्या से उस कर्म की सत्ता में हम परिवर्तन कर सकते हैं, उसकी शक्ति को घटा सकते हैं बढ़ा सकते हैं, असमय में गला करके भी निकाल सकते हैं। तपस्या में भी सबसे बड़ी साधना समता की है। आप अपने अन्दर जितनी समता रखोगे, उतने कर्म को काटने में समर्थ होंगे। समता के बल पर ही कर्म को काटा जा सकता हैं। जैसे धरती में बोया गया बीज जब उसमें खाद पानी डाला जाएँ तब अंकुरित होता हैं, उसी तरह जब कर्म का उदय आया है तब हमने उसमें राग द्वेष का खाद पानी डाल दिया तो नया कर्म बन्ध जाएगा और हमें आकुल व्याकुल करेगा। लेकिन उस कर्म के बीज को हमने समता की आँच में भून दिया तो दोबारा उसका अंकुरण नहीं होगा, वह नष्ट होगा, आगे की सन्तति भी नष्ट होगी। संचित कर्म के लिए हमारी साधना के बल पर हम उसकी शक्ति को घटा सकते हैं, बढ़ा सकते हैं। घटाने का मतलब अपकर्षण, बढ़ाने का मतलब उत्कर्षण, संक्रमण यानी उसे हम परिवर्तित भी कर सकते हैं। यह पुरुषार्थ की ताकत है। पुरुषार्थ की विधि साधना है, तपस्या है, जैन साधना उसी के लिए है।

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