धर्म की क्रिया करना और धर्म को जीना दोनों में क्या अंतर है?

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शंका

सुबह उठकर अभिषेक, पूजन-पाठ, माला, तीर्थ-यात्रा, भोजन में शुद्धता तथा अभक्ष्य आदि का त्याग होने के बावजूद भी हम कुछ जैन बन्धुओं और श्रावक श्राविकाओं में राग-द्वेष, क्रोध कम क्यों नहीं हो पाता है? हम लोग चौके में जितना हो सकता है उसकी शुद्धि रखने की कोशिश करते हैं उसके बावजूद भी बड़ा दुःख होता है, जब हमें मालूम पड़ता है कि हमारे कुछ साधुओं को हृदय रोग, कैंसर या कुछ अन्य तरह के भयंकर रोग और बीमारी हो जाती है। ऐसा क्यों?

समाधान

धर्म की क्रिया करना और धर्म को जीना; दोनों अलग-अलग चीजें हैं। बहुतायत लोग धर्म की क्रिया करते हैं, धर्म को जी नहीं पाते। धर्म की क्रिया करने वाला धार्मिक होता और धर्म को जीने वाला आध्यात्मिक। व्यक्ति के भीतर आध्यात्मिकता विकसित होनी चाहिए और जब तक अन्दर का परिवर्तन नहीं होता, आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तो अपने भीतर आध्यात्मिकता को घटित करने की कोशिश करें। हम किस लिए धर्म कर रहे हैं, जब यह प्रश्न आपके मन में उभरेगा तभी आध्यात्मिक चेतना का जागरण होगा और वह आपके जीवन में बदलाव लाएगा। 

साधुओं में बीमारी का जहाँ तक प्रश्न है, तो बीमारी का अन्तरंग कारण कर्म है। हम सनत कुमार चक्रवर्ती जैसे महामुनिराज को देखें, जिनके शरीर में कोड़ हो गया था। ये बीमारी किसी को भी हो सकती है। वादिराज मुनिराज के शरीर में भी कोड़ हो गया था। बीमारियाँ कर्म के उदय से होती है। हाँ, आज के समय का कुछ परिवेश ऐसा हो गया है जैसे खानपान, रहन-सहन, बदली हुई जीवनशैली, आहार दान देने वाले श्रावकों के मनोभाव, यह सब भी बीमारी को उभारने में कारण बन सकतें हैं। शुद्धि-अशुद्धि का विवेक न रखना भी बीमारी का कारण बन सकता है। लेकिन ये बाहरी कारण हैं, अन्तरंग कारण तो कर्म का उदय है। यदि साधु का पुण्य तीव्र हो तो उसे जहर देने के बाद भी जिंदा रखा जा सकता है। हमें यथासम्भव सावधानी रखनी चाहिए और घबराना नहीं चाहिए।

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