सच्चे सुख की क्या परिभाषा है?

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शंका

कभी लगता है कि मैं सबसे सुखी हूँ, कभी लगता है कि मैं बहुत दुखी हूँ, कभी यथार्थ में मन नहीं रहता। महाराज जी सच्चे सुख की क्या परिभाषा है?

समाधान

जब हमारे मन में ये बात है कि मैं सुखी हूँ या दुखी हूँ या मैं महसूस करता हूँ कि आज मैं सुखी हूँ या आज मैं दुखी हूँ, यथार्थता ये जो कुछ भी अनुभव हैं ये सब दुखी होने की पहचान है। एक दुखी आत्मा ही अपने आप को कभी सुखी, कभी दुखी महसूस करती है। जैसे किसी के शरीर में बुखार होता है, १०५ डिग्री ताप हो तो- ‘अरे! बहुत टेंपरेचर है, बहुत टेंपरेचर है।’ ताप कम हो गया फिर कैसा है? ‘अभी राहत है’, ‘कितना है?’ ‘९९ डिग्री है’ बुखार तो है, पर वो अपने आप में राहत महसूस कर रहा है। संसार के प्राणी के सामने जब अनुकूलता होती है तो ९९ टेंपरेचर हो तो भी ठीक है और जब प्रतिकूलता आती है तो १०५-१०६ टेंपरेचर की तरफ जाता है, तो ‘हालत खराब है, अब क्या होगा?’ ये दोनों अस्वस्थता के लक्षण हैं। 

सुख हो या दुःख हो, सच्चे अर्थों में परम सुखी कौन है- जो परमानंद में निमग्न है, जो सुख और दुःख में समता रखता है। क्योंकि न तो मैं सुख रूप हूँ, न ही मैं दुःख रूप हूँ, न मैं सुखी हूँ, न मैं दुखी हूँ। मैं क्या हूँ? मैं तो हूँ, बस हूँ। उस सुख से या दुःख से मेरा कोई नाता ही नहीं है, ये तो केवल पर्याय की बुद्धि है। अपने सुखी होने या दुखी होने का विकल्प करने की जगह अपने होने मात्र का अनुभव कर ले उसका जीवन धन्य हो जाए। ‘मैं हूँ’ बस, ये अध्यात्म है। जिसे हर पल अपनी सत्ता का एहसास और आभास होता है उसके चित्त में सुख-दुःख कभी हावी नहीं हो सकते। वो परम समता में जीता है और इसी समता का नाम ही परमानंद है। हमें उस परमानंद को लक्ष्य बनाना चाहिए। 

ये तो हमारे मन के विकल्प हैं- मनोनुकूल व्यवस्था है तो हम अपने आप को सुखी महसूस करते हैं; और मन के विरुद्ध स्थितियाँ होती हैं तो दुःखी। जिन निमित्तों से तुम अपने आप को सुखी मान रहे हो और जिन निमित्तों से तुम अपने आप को दुखी मान रहे हो, वो तुम हो ही नहीं। मैं हूँ कुछ और अपने आपको मानूं कुछ और, तो क्या होगा? सुभाष जैन अपने आप को सन्मति जैन मान ले तो क्या होगा। दुनिया में यही पागलपन है, ये पागलपन जब तक नहीं छूटेगा, तब तक जीवन का पथ प्रशस्त नहीं होगा। ‘मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ’, इस विकल्प से ऊपर उठने वाला ज्ञानी है। जिसके हृदय में परम समरसी भाव है। सहजता, समानता, सौम्य भाव -जो जीवन में अद्भुत विलक्षणता घटित करती है- अगर वो घट जाए तो जीवन धन्य है।

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