मोक्ष मार्ग पर चलने वाले जीव की आंतरिक व्यवस्था एवम् वैराग्य कैसा होता है?

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शंका

मोक्ष मार्ग पर चलने वाले जीव की आंतरिक व्यवस्था एवम् वैराग्य कैसा होता है?

समाधान

संयम या वैराग्य के पथ पर बढ़ने वाले साधक के जीवन में दो प्रमुख चीज होनी चाहिए एक ज्ञान और दूसरा वैराग्य। भेद विज्ञान उसकी समझ शक्ति को मजबूत बनाता है, उसकी निर्णय शक्ति को मजबूत बनाता है और उसके साथ में रहने वाला वैराग्य उसके भीतर की वैश्य शक्ति को क्षीण करता है। जब तक किसी साधक के भीतर सच्चा ज्ञान प्रकट ना हो सही वैराग्य प्रकट नहीं होता और ज्ञान – वैराग्य की अभिव्यक्ति के बिना वह संयम त्याग का आनंद भी नहीं लेता। तो यथार्थ: जो अनुभव है वह यही है, यदि ज्ञान और वैराग्य है, तो वह सब कुछ पा सकता है। ज्ञान और वैराग्य के अभाव में उसकी दीक्षा कोरी एक रस्म का रूप ले कर रह जाती है।

मैं अपने अनुभव को बता सकता हूँ मेरी दीक्षा क्रमिक हुई, मैं ब्रह्मचारी से क्षुल्लक, फिर एलक फिर मुनि बना। एलक अवस्था में मेरे पास एक छोटी सी लंगोटी मात्र थी, साधना हमने ब्रह्मचारी अवस्था से ही मुनि की करी, गुरुदेव की कृपा से एक टाइम भोजन करना, वही कैशलोच करना, वही सारी प्रक्रिया करना। तन पर एक जोड़ी कपड़े और एक जोड़ी कपड़े तार पर टंगे रहते थे। इसके अलावा कोई परिग्रह नहीं रखना, कभी हमने रुपया पैसा छुआ नहीं, ऐलक अवस्था में भी एक लंगोटी मात्र थी। अगर ऐसा देखा जाए तो लंगोटी ऊपर की थी अंदर की नहीं थी। जिस दिन हमने दीक्षा ली, गुरूदेव की कृपा मिली, लंगोटी उतरते ही मुझे ऐसा लगा कि जीवन का बहुत बड़ा भार उतर गया है। उस दिन मैंने गुरुदेव से कहा कि गुरुदेव कैसी कृपा हो गई आपकी! आज तो ऐसा लगता है कि आर्त ध्यान का नाम मात्र नहीं है। तो यह अनुभव दीक्षा से घटित होता है और सबका अपना-अपना अनुभव हो सकता है। श्रावक के भीतर वैराग्य का ज्ञान हो, अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठा हो तो मेरे ख्याल से ऐसा अनुभव होना ही चाहिए।

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