आत्मा क्या है?

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शंका

आत्मा का तात्विक स्वरूप क्या है?

समाधान

आत्मा है क्या, पहले समझो। यह जो हमें दिखता है हमारा शरीर दिखता है और आत्मा के बारे में हम ज़्यादा सोचते हैं तो हमारे अन्दर के जो विचार हैं, हमारे अन्दर का जो ज्ञान है, हमें वह दिखता है। और जो हमारे भीतर के विकार दिखते हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह- यह जितनी भी चीजें हैं, यह सब आत्मा से सम्बद्ध हैं लेकिन यह सब आत्मा के विकार हैं। क्यों हुए ये विकार? कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले विकार। जैसे पानी स्वभावतः शीतल होता है लेकिन शीतल जल में जब आप आँच दे देते हैं अग्नि की, वही पानी उष्ण हो जाता है, गरम हो जाता है। ऐसे ही हमारी आत्मा स्वभावतः शान्त है, निर्विकार है लेकिन कर्म की आँच अनादि से ऐसी पड़ रही है जिसके कारण हमारे अन्दर ढेर सारे विकार हैं, ये हमारी आत्मा का स्वरुप नही। इस स्वरूप के बीच हमें अपनी आत्मा को पहचाना है, तो तत्वत: आत्मा क्या है जिसमें शरीर नहीं, इन्द्रियाँ नहीं, मन नहीं, राग नही, द्वेष नहीं, मोह नहीं, क्रोध नहीं, मान नहीं, माया नहीं, लोभ नहीं, , जितने भी विकार हैं उन सबसे परे जो रूप हैं वो मैं हूँ। क्या हूँ? केवल जानने वाला हूँ और देखने वाला हूँ। 

“एगो में सासदो आदा, णाणंदसणलक्खणो। 

सेसा में बाहिरा भावा सव्वे संजोग लक्खणा।।” 

“मैं एक मात्र ज्ञाता दृष्टा आत्मा हूँ, शाश्वत आत्मा हूँ, ज्ञान और दर्शन मेरा लक्षण है। इस ज्ञाता-दृष्टा आत्मा के अलावा और जो कुछ भी मुझसे सम्बन्ध है, वे संयोग से हैं।” कर्म के निमित्त से उत्पन्न हैं, वो मैं नहीं और मेरा नहीं, उस पर श्रद्धान हो। मैं शुद्ध बुद्ध ज्ञानी आत्मा हूँ, यह जितनी भी चीजें हैं ये ऊपर की परिणतियाँ है। इनसे मेरा सीधा कोई नाता नहीं, इनसे मेरा सीधा कोई सम्बन्ध नहीं, यह आत्मा के तात्विक स्वरुप को समझो और यह भी ध्यान में रखो कि समुद्र में उत्पन्न होने वाली लहरें उत्पन्न होती और विलीन होती है, तो भी समुद्र का कुछ बिगाड़ नहीं होता। ऐसे ही आत्मा में चाहे जितने भी पर्याय उत्पन्न हो, नष्ट हो लेकिन आत्मा आत्मा है। जैसे पानी को कितना भी गरम क्यों न कर दिया जाए, ठंडे होने की शक्ति उसकी कभी विनष्ट नहीं होती। आत्मा में चाहे कितना भी विकार क्यों न हो जाए, निर्विकार होने की शक्ति उसकी अन्त तक बनी रहती है। हर आत्मा में वह शुद्ध स्वरूप है, हर आत्मा में वह सिद्ध स्वरूप है, वही हमारा तात्विक स्वरूप है उसे पहचानो और उस स्वरूप को अभिव्यक्त करने का सदप्रयत्न करो, यही हमारा पुरुषार्थ है और इसी में जीवन की सार्थकता है।

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