व्रत क्या है?

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शंका

अव्रतों से पाप का बन्ध होता है, व्रतों से पुण्य का बन्ध होता है। सिद्धान्त कहता है इन दोनों को छोड़ने से ही मोक्ष सम्भव है, फिर पुण्य के पक्षपाती क्यों नहीं मानते और व्रतों के प्रति इतनी कट्टरता क्यों रखते हैं?

समाधान

पहले तो मैं आपसे कहूँगा कि आपने जो शब्द कहें हैं उनमें सुधार की आवश्यकता है। अव्रतों से पाप बन्धता है, और व्रतों से पुण्य बन्धता है-ऐसी बात नहीं है; व्रतों से पाप रुकता है और पाप की निर्जरा होती है। लोगों ने जो यह अवधारणा बना रखी है कि व्रतों से केवल पुण्य का बन्ध होता है यह भ्रम पूर्ण अवधारणा है। आचार्य वीरसेन महाराज से किसी ने सवाल किया कि ‘व्रत क्या है?’ धवला में उन्होंने समाधान दिया-प्रति समय असंख्यात गुण-श्रेणी रूप निर्जरा का हेतु का नाम व्रत है इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि व्रत से केवल पुण्य का बन्ध होता है उन्होंने जैन आगम के सार को समझा ही नहीं।

दूसरी बात, व्रत प्रवृत्ति-रूप क्रिया है, माना! लेकिन ये एक ऐसी प्रवृत्ति है जो निर्वृत्ति की ओर ले जाती है। पाप को प्रतिज्ञापूर्वक त्यागा जाता है, व्रत को त्यागा नहीं जाता, व्रत से ऊपर उठा जाता है। कोई तीर्थंकर भी जब मुनि बनते हैं तो पंचाचार्य का जीवन पर्यंत के लिए संकल्प लेते हैं, ये व्रत है। पर जब वो आत्म ध्यान में निमग्न होते हैं तो अपने व्रत का भी संकल्प भूल जाते हैं, वो विकल्प भूल जाते हैं। व्रत के विकल्प को छोड़ा जाता है, व्रत को नहीं त्यागा जाता है। जिस तरह प्रतिज्ञा पूर्वक पापों को त्यागा जाता है इस तरह प्रतिज्ञा पूर्वक व्रतों को त्यागने की प्रेरणा हमारे आगम में कहीं नहीं दी, बल्कि यह कहा ‘जो भी व्रत लो सारे जीवन के लिए लो और व्रत से निर्वृत्त होने का रास्ता चुनो’ इसलिए ये जो कहते हैं कि व्रतों के पक्षपाती व्रतों में कट्टरता रखते हैं ऐसा वही लोग कहते हैं जिन्होंने जीवन में कभी व्रत अंगीकार नहीं किया और भविष्य में कोई व्रत अंगीकार भी नहीं करना चाहते। इसलिए सावधान रहो, व्रत संवर और निर्जरा का हेतु है; पाप पर ब्रेक लगाने के साधन का नाम व्रत है।

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