आगम क्या है? क्या प्राकृत-संस्कृत अपभ्रंश में लिखा साहित्य आगम है?

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शंका

आगम क्या है? क्या एक गाथा आगम है, क्या एक चरण आगम है, क्या एक शास्त्र आगम है, क्या प्राकृत – संस्कृत अपभ्रंश भाषा आगम है, मुनिवर बतायें आगम क्या है?

समाधान

जो आप्त के द्वारा प्रणीत है या यूँ कहें आप्त से प्राप्त है, वह आगम है। आप्त मतलब भगवान, जो भगवान की वाणी है वही हमारे लिए आगम है। भगवान तो हजारों वर्ष पहले हुए। भगवान महावीर को भी निर्वाण प्राप्त किए 2500 वर्ष से अधिक हो गए, वे आज नहीं है, पर उनकी वाणी हमारे पास है। उस वाणी को हम तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित किया है हमारे महान महान आचार्यों ने। भगवान महावीर के बाद जो आचार्य परम्परा आई, उसमें तीन तो केवली हुए हैं  गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य और जंबूस्वामी; और विष्णुमित्र, नंदीवर्धन, गोवर्धन, अपराजित और भद्रबाहु – ये पाँच श्रुत केवली हुए जो 163 सालों तक रहे। हमारा द्वादशांग अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के काल तक रहा, फिर धीरे-धीरे क्षीण होता गया। आचार्य परम्परा से चलते-चलते यह आगम की धारा आज हमारे तक आई है। आगम वही है जो भगवान के द्वारा प्रतिपादित है और हमारे आचार्यों ने भगवान की वाणी को ही ज्यों का त्यों, अविच्छिन्न बनाकर शास्त्र में निबद्ध किया। वर्तमान में निबद्ध शास्त्र के हिसाब से आज हमारे यहाँ ‘षटखंडागम आगम का पहला ग्रन्थ माना जाता है। ‘कषाय पाहुड़ हमारा ग्रन्थ माना जाता है और इसके बाद आचार्य कुन्दकुन्द आदि जितने भी महान महान आचार्य हुए उनकी जो कृतियाँ है वह आगम है।

आपने पूछा है – क्या गाथाएँ आगम है? क्या प्राकृत-संस्कृत अपभ्रंश में लिखा साहित्य आगम है? निश्चित ही हमारा आगम संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश में लिखा गया है, यह सब आगम है लेकिन जो कुछ इस भाषा में लिखा गया वही आगम नहीं। हमारा आगम वही आगम है जो भगवान की वाणी से मेल खाता है और जिससे भगवान की वाणी टकराती है वह आगमाभास। भगवान की वाणी का सार अहिंसा और वीतरागता है, उसे आगम के रूप में स्वीकार करना जिससे अहिंसा और वीतरागता की पुष्टि होती हो। जिसमें किसी भी प्रकार की हिंसा का समावेश हो और किसी भी प्रकार से राग का पोषण हो समझ लेना वह जैन आगम के नाम से जरूर है पर वह आगम नहीं है क्योंकि आगम का सार ही यही है। अहिंसा हमारा प्राण है वीतरागता हमारी साधना का आधार है। इस प्राण और आधार के बिना हम आधार शून्य हो जाएँगे। इसे ही देख करके चलना चाहिए।

यह विडम्बना है इस कलिकाल में हमारे आँगन में भी बहुत सारी मिलावट हुई। अगर हम जैन परम्परा के इतिहास को पलट कर के देखते हैं तो मूल संघ के अतिरिक्त हमारे यहाँ कुछ ऐसे संघ थे जिन्हें जैन आभास की संज्ञा दी। उस संघों में थे- आप्तिसंघ, द्रविड़संघ, माथुरसंघ और काष्ठासंघ इन चार संघो को जैन आभास की संज्ञा दी और यह ऐसे संघ थे जो दिगम्बर अवस्था में रहा करते थे। लेकिन दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध दूसरी मान्यताओं पर विश्वास रखा करते थे। हमारे आचार्यों ने इन्हें मूल संघ से बहिर्भूत घोषित किया। इनमें भी अनेक महान महान आचार्य थे, बड़े विद्वान् और वांगमयी आचार्य थे। इनके ग्रन्थ आज भी यहाँ उपलब्ध हैं, हम लोगों के पठन-पाठन में आते हैं। लेकिन उनमें कुछ बातें ऐसी है जो हमारे मूल संघ के आचार्यों की बातों से मेल नहीं खाती। तो यह हमारे विद्वानों की बड़ी कृपा रही है, जैन संस्कृति के ऊपर जिन्होंने अपने अध्ययन और अनुशीलन से शोध और खोज के बल पर इस बात को निर्धारित किया कि कहाँ-कहाँ हमारे साहित्य में कब-कब क्या-क्या परिवर्तन हुआ, कैसा कैसा मिलावट हुआ, देश काल के आने के बाद। इसीलिए जिसे ज़्यादा जानना है तो मैं आपको 4 कृतियों का नाम बताता हूँ- मिलापचंद रतनलाल कटारिया की कृति है जैन निबंध रत्नावली, दूसरी जुगल किशोर मुख्तार की कृति है युगवीर निबंधावली और उनकी एक दूसरी कृति है जैन इतिहास परविशदप्रकाश, पंडित कैलास चंद सिद्धान्त शास्त्री की कृति है जैन साहित्य का इतिहास। यदि आप इन्हें पढेंगे तो सब बातें दर्पण की तरह स्पष्ट हो जाएंगी, इसलिए इसे बहुत गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है।

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