जैन धर्म में सूर्यग्रहण के बारे में क्या कहना है?

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शंका

२१ जून को सूर्य ग्रहण लग रहा है। जैन धर्मानुसार इसका हमारे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है? सभी को अपने-अपने द्वारा बाँधे गए कर्मों का ही फल मिलता है, फिर भी अगर ये प्रभावकारी है, तो हमें क्या-क्या सावधानी रखनी चाहिए? कहा जाता है कि ग्रहण लगने से बारह घंटे पहले सूतक लग जाता है, तो क्या हमें उस दिन प्रातः अभिषेक, पूजन आदि नहीं करना चाहिए?

समाधान

जैन धर्म के अनुसार ग्रहण एक प्राकृतिक घटना है। राहु-केतु के निमित्त से ग्रहण पड़ते हैं। एक दूसरे की छाया पड़ जाने से ग्रहण पड़ता है। जैन धर्म में ग्रहण के प्रति वही मान्यता है, जिसे विज्ञान मानता है। फर्क केवल एक अवधारणा का है, विज्ञान के अनुसार सूर्य स्थिर है, पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है और जैन धर्म के अनुसार पृथ्वी स्थिर है, सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है, चंद्रमा पृथ्वी का चक्कर लगाता है। ये एक मान्यता गत अन्तर है। लेकिन ये जो कुछ भी घटना है, ये एक प्राकृतिक घटना है और इसे प्राकृतिक रूप में ही लेना चाहिए। 

राहु उसे ग्रस लेता है, ये केवल लोक भाषा है। सूर्य को कोई निगलता नहीं, केवल छाया पड़ने के कारण ऐसा होता है। इसलिए जैन धर्म में किसी भी प्रकार के सूतक-पातक का कोई विधान नहीं है। ग्रहण के दिन वही सावधानी रखिए जो आज वैज्ञानिक आपसे कहते हैं। जैसे ग्रहण के काल में बाहर न निकलना, गर्भवती स्त्रियों को ग्रहण के दिन बाहर न आना क्योंकि उससे जो सूर्य की किरणें (अल्ट्रावॉयलेट रेज़ – ultraviolet rays) है उसका असर हमारे शरीर पर बुरा पड़ सकता है। तो जो वैज्ञानिक बताते हैं आप वही सब पालन कीजिए। 

हमारे यहाँ पूजन पाठ का निषेध नहीं है, केवल सिद्धान्त ग्रंथों के अध्ययन का निषेध है ग्रहण के काल में। इसलिए हमें सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन छोड़कर भजन, पूजन, कीर्तन करना चाहिए। ये एक प्राकृतिक परिवर्तन है और उस परिवर्तन के समय में मन्त्र-जाप, पाठ-पूजा का कहीं निषेध नहीं है और किसी प्रकार से ग्रहण के बाद स्नान करने की बात या सूतक आदि की बात जैन धर्म में कहीं भी मान्य नहीं है। इनका ध्यान रख करके ही आप लोग काम करें।

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