सोलहकारण भावनाएं क्या हैं और कैसे करें?
सोलह कारण भावनाएँ जीवन की श्रेष्ठतम भावनाओं में से एक है। जैन परम्परा में भावनाओं का बहुत महत्व है और यह कहा गया है-“यद भाव्यते, तद भवति।” मनुष्य जैसी भावना भाता है वैसा बन जाता है। सोलह कारण भावनाएँ तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध में हेतु भूत भावनाएँ हैं। यह आप लोग रोज पूजा में कहते हैं-
“दरश विशुद्धि भावना भाय, षोडष तीर्थंकर पद पाय,
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो।।”
यह परम-सुख को प्रदान करने वाला, तीर्थंकरत्व को प्रदान करने वाला महान भाव है। ऐसी भावना जिसके बल पर आत्मा में विशुद्धि हो। निश्चयत: पंचम काल में किसी को तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता, क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के लिए केवली अथवा श्रुत केवली का पादमूल सानिध्य ज़रूरी है। वर्तमान में न केवली है न श्रुत केवली। मुझसे एक बार पूछा गया “फिर हम सोलह कारण भावना क्यों भायें?” तो हमने कहा- आज हम तीर्थंकर बनने के लिए सोलह कारण भावना नहीं भाते, भविष्य में हमें तीर्थंकरों का सानिध्य मिले इसलिए भी सोलह कारण भावना भाई जाती है।
हमारी यह भावनाएँ भाद्रपद माह में बड़ी मांगलिक हैं, भाद्रपद को श्रेष्ठत्म मास बताया गया है। जिस माह में हमारे भीतर की भद्रता प्रकट हो, उसका नाम भाद्रपद है। भादो में भद्रता आती है, परिणाम की शुद्धि आती है, इसलिए इस भाद्रपद का लाभ उठाते हुए व्रत, उपवास, त्याग, संयम आदि सब को धारण करना चाहिए। इसमें सोलह कारण, रत्नातत्रय, दसलक्षण और पुष्पांजलि, यह चार महत्वपूर्ण बड़े-बड़े व्रत आते हैं। आप लोग सोलह कारण व्रत कर रहे हैं, बहुत सारे लोग सोलह कारण के बत्तीस उपवास कर रहे हैं, बहुत सारे लोग सोलह उपवास करते हैं, बहुत से लोग एक आहार-एक उपवास करते हैं; बहुत सारे लोग सोलह दिन में एक आसन करते हैं, बीच-बीच में उपवास करते हैं; बत्तीस दिन में एक आसन करते हैं और बीच-बीच में उपवास भी करते हैं; तो यह सोलह कारण भावना का एक तपस्या का रूप है, यह बाहरी रूप है, त्याग तप करना यह बाहरी रूप है। लेकिन इन दिनों उनकी जापों को करना चाहिए और सोलह कारण के स्वरूप को समझकर बार-बार उसका स्मरण करना चाहिए।
इन सोलह कारण भावनाओं में सबसे प्रधान या प्रमुख भावना है-दर्शन विशुद्धि! तो मैं तो कहना चाहता हूँ जितने लोग भी सोलह कारण के व्रत कर रहे हैं वे दर्शन विशुद्धि को प्रकट करने की कोशिश करें। दर्शन विशुद्धि का मतलब- विश्व कल्याण की भावना से भरा हुआ, निर्मल सम्यक दर्शन! हमारे मन में सारे संसार के कल्याण की प्रगाढ़ भावना हो और निर्मल सम्यक दर्शन हो। संसार के कल्याण की भावना तो हो ही, हमारा सम्यक दर्शन निर्मल बना रहे, ऐसा प्रयास हमारा होना चाहिए। वही हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में गिने जाने योग्य है।
सम्यक दर्शन हमारा कैसे बने? देव-शास्त्र-गुरु के प्रति दृढ़ श्रद्धा हो; छः अनायतनों एवं तीन मूढ़ताओं से अपने आप को दूर करें; आठ अंग का पालन करें; आठ मद रहित पऋणति हो और साथ में तत्व के श्रद्धान के साथ आत्मा के प्रति अभिरुचि बढ़े। यदि ऐसा होता है, तो निश्चित: हमारा यह सोलह कारण व्रत करना और यह सोलह कारण भावना हमारे कल्याण के कारण बनती है। तो सबसे बड़ी बात भाव विशुद्धि! सोलह कारण भावनाओं में सबसे महत्वपूर्ण भावना दर्शन विशुद्धि है, फिर विनय संपन्नता आदि अपनी अपनी सुविधा के अनुसार करना चाहिए।
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