संस्थाओं के आहार-दान राशि का विहार की व्यवस्था में उपयोग!

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शंका

संस्थाओं के आहार-दान राशि का विहार की व्यवस्था में उपयोग!

समाधान

साधुओं की आहार- विहार कराने की ज़िम्मेदारी समाज की होती है और समाज हर साधु की ठीक ढंग से सेवा, वैयावृत्ति करें, उनके आहार-विहार की व्यवस्था करे। यदि समाज ऐसा करे ऐसा तो फिर साधुओं को अलग से चंदा-चिट्ठा इकट्ठा करने की जरूरत नहीं पड़ेगी और साधुओं को करना भी नहीं चाहिए। सर्वस्व त्यागने के बाद श्रावकों के आगे हाथ फैलाना बहुत लज्जा की बात है। पहले तो साधुओं को किसी तरह का चंदा चिट्ठा नहीं करना चाहिए और इस तरह ऐसे क्षेत्र में जाना ही नहीं चाहिए जहाँ कोई विहार कराने वाला ना हो; और यदि ऐसी नौबत आती है तो एक जगह रह कर निर्भीकता के साथ निकल जाए, समाज अपने आप पीछे से व्यवस्था करती है।

मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ कि साधु के अंदर दृढ़ता कैसी होती है। पहली बात साधु की, फिर समाज की बात करूंगा। एक जयसागरजी महाराज थे दक्षिण भारत में। उन्होंने कहीं चातुर्मास किया और उनकी सम्मेद शिखरजी आने की बड़ी प्रबल इच्छा थी। जब चातुर्मास किया तो श्रावकों से कहा कि मैं चातुर्मास के बाद सम्मेद शिखर की वंदना के लिए जाना चाहता हूं। समाज के लोगों के आग्रह पर कि “महाराज हम आपके चातुर्मास के बाद आपकी वंदना कराएँगे” महाराज ने चातुर्मास कर लिया। चातुर्मास संपन्न हुआ, और महाराज ने कहा मैं तो संकल्प लिया हूं, चातुर्मास हो गया मुझे शिखरजी जाना है। अब श्रावक लोग आना कानी करने लगे। “अब हमारी खेती का टाइम है, इसका टाइम और उसका टाइम है, थोड़े दिन रुक जाओ फिर करेंगे।” महाराज ने कहा- “तुम्हारी तुम जानो”, उन्होंने पिच्छी कमंडल उठाया और चल दिए। बड़े निस्पृही और निर्भीक साधक थे। वह उसी स्थिति में निकल गए। विहार किये, विहार करते-करते ऐसी स्थिति हुई कि उनको 150 किलोमीटर तक कहीं आहार नहीं मिला। 3 दिन तक उन्होंने आहार नहीं लिया। तीसरे दिन उनके कमंडल का पानी खत्म हो गया। तो एक ब्राम्हण कुँए से पानी भर रहा था। उसको उन्होंने कहा, उसने उन्हें विधिवत पानी छानकर प्राशुक करके उनके कमंडल में दिया। वह जिस रोड से विहार कर रहे थे उस रोड से 2 किलोमीटर अंदर एक जैन श्रावक का घर था और वह ब्राम्हण समझदार था। उसने जाकर के साइकिल से जाकर उसे सूचना दी कि “तुम्हारे एक साधु जो काफी थके और भूखे प्रतीत होते हैं, अकेले हैं; उनके साथ कोई नहीं है तुम उनको देख लो।” श्रावक ने जैसे सुना, बड़ा समझदार था, उसने अपनी पत्नी से कहा कि “देख सुबह का टाइम है, कोई महाराज हैं, मैं लेकर आता हूं, तुम चौके की व्यवस्था करो।” वह खुद आगे होकर गया। महाराज से निवेदन किया महाराज अंदर मंदिर है दर्शन करें। मंदिर के नाम पर वह महाराज आ गए। महाराज के मंदिर में दर्शन करवाया, पांव बुलवाया। पांव में गांठे हो गई थी। डेढ़ सौ किलोमीटर लगातार चल रहे थे। तब तक चौका तैयार हो गया। एक घंटे के बाद दोनों ने विधिवत पडगाहन किया और महाराज को आहार दिया। अपार प्रसन्नता हुई। तीन दिन के बाद महाराज ने पहली बार आहार लिया। फिर उसके बाद धीरे-धीरे वह कटनी आए। कटनी में चातुर्मास हुआ था।

संभवत यह घटना 1982 की है। मुझे कटनी जैन समाज के उस समय के अध्यक्ष, सवाई सिंह अजय कुमार जी ने घटना सुनाई। वह महाराज इतने बड़े साधक थे कि कहीं बैठने के लिए पाटा भी नहीं मंगाते थे। पाटा लाने में जब पाटा लानेवालों ने थोड़ी देर कर दी तो रात पूरी जमीन पर बिताये, ठंड में। फिर कटनी के लोग उनका पूरा विहार करा कर सम्मेद शिखरजी लेकर आए थे।

तो साधु में दृढ़ता होनी चाहिए पहली बात। साधु को श्रावकोंके आगे दीन नहीं बनना चाहिए। अपने लिए अपनी व्यवस्था की मांग करें। और साधुओं के प्रति श्रावकों का कर्तव्य है कि ऐसे निस्पृह चर्या के धारी साधुओं का तन मन धन से सब कुछ समर्पित करके उनकी चर्या का पालन कराएं। ताकि धर्म की प्रभावना बढ़े। क्षेत्रों में कई बार ऐसा होता है कि लोग साधुओं के आने जाने के बाद उनके विहार की व्यवस्था करने में आनाकानी करते हैं। मैं कहता हूं प्रायः सभी क्षेत्रों में आहार दान के नाम पर एक मद होता है और रसीद कटती है। उस पैसे का तुम लोग क्या उपयोग करते हो? आहार दान के नाम पर आप कोठियों में पैसा देते हो, और वह पैसे का प्रयोग अगर धर्मशाला के निर्माण में होता या अन्य कार्यों में होता है तो जो जो उस कोठी के संचालक है सब पाप के भागी है। आहार दान यानी साधु के लिए आपने लिया है तो साधु के आहार विहार की व्यवस्था करो। जो श्रावक उसमें दान देता है किसके लिए देता है? साधू की व्यवस्था के लिए। और ऐसा मैनेजमेंट होना चाहिए कि साधु की व्यवस्था में कोई कमी ना हो ताकि साधु को हाथ ना पसारना पड़े और यदि कोई साधु हाथ पसारे तो हाथ जोड़ लें कि “महाराज आपके लिए शोभा नहीं देता; हम लोग हैं आप कहिए आपको क्या चाहिए?” साधु भी सुधरेगा और समाज की व्यवस्था भी सुधरेगी। आपकी ऐसी अव्यवस्था है जिसके कारण दोनों की अवस्थाएं बिगड़ जाती है। साधू की व्यवस्था और समाज की व्यवस्था, जो भी जिन भी समितियों में ऐसी व्यवस्थाएं हैं अगर आप ऐसे कार्यों का सही उपयोग नहीं करते तो पाप के भागी हो।

एक बात बताये देता हूं, जितने लोग भी धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं का कार्यभार अपने कंधे पर रखते हैं, जो पैसा जिस मद में जिस उद्देश्य से दातार देता है, आपका दायित्व है आप उसी के अनुरूप उसका खर्चा करो ताकि आप पाप के भागी बनने से बचो। और यदि आपकी दृष्टी में केवल पैसा है और अलग अलग तरीके से आप पैसा संग्रह करते हो तो भगवान को तो कोई जरूरत रहेगी नहीं, उस पैसे के इस तरह के उपयोग के परिणाम स्वरूप महान पाप के भागी बनोगे। ऐसा कार्य कभी नहीं करना चाहिए। समाज में ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए कि किसी भी साधु को कहीं कोई दिक्कत ना हो। जिन साधुओं की प्रभावना होती है उनके साथ तो बहुत लोग जुड़ जाते हैं लेकिन कतिपय साधु जनों के साथ ऐसी दिक्कतें आती है। हालांकि साधुओं की भी गलती है इक्का-दुक्का साधु अकेले-अकेले विहार करते रहते हैं तो समाज के सामने भी एक समस्या होती है कि हम कब तक कितनी व्यवस्थाएं करें। तो यह दोनों तरफ से होना चाहिए ऐसे साधुओं को भी निवेदन पूर्वक कहना चाहिए कि आप किसी ग्रुप में रहे तो हम लोगों को ज्यादा अच्छा रहेगा और फिर जो हैं उनकी व्यवस्था करने की संपूर्ण जवाबदेही समाज की।

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