तीर्थंकर और साधु स्नान नहीं करते, तो प्रतिमाओं का अभिषेक क्यों?

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शंका

तीर्थंकर भगवान और साधु स्नान नहीं करते हैं, तो फिर प्रतिमाओं का अभिषेक क्यों किया जाता है?

समाधान

तीर्थंकर को तो हम छू भी नहीं सकते है, तो फिर भगवान का स्पर्श कैसे कर सकते हैं? साधु को हम भोजन करा सकते हैं, तो फिर प्रतिमाओं को भोजन भी करायें? प्रतिमा में और साक्षात् में अन्तर है! 

तीर्थंकर अरिहंत परमेष्ठी हैं, आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी हैं। परमेष्ठी अवस्था में उनके अनुरूप जो क्रियाएँ हैं वह करेंगे। वो उनका मूल गुण है, वो साधक हैं। लेकिन जब हम उनकी प्रतिमा स्थापित करते हैं तो प्रतिमा स्थापित करने के बाद पूजा प्रतिष्ठान की विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाएँ होती हैं। उन प्रक्रियाओं में अभिषेक की बहुत प्राचीन प्रक्रिया है। अभिषेक करने से भगवान का नजदीकी से सामीय आता है और अभिषेक की धारा छोड़ने का मतलब ये नहीं हैं कि भगवान को नहलायें? अभिषेक करने का मतलब ये है कि इस धारा के आने से हमारे अन्दर के कर्म कलंक निकलें। ‘हे भगवान! आप कर्म बन्ध से रहित हो चुके हो, आपके ऊपर कोई कलुषता नहीं है। ये जानकर भी मैं अपने पाप समूह के प्रक्षालन के लिए शुद्ध जल की धारा आपके ऊपर छोड़ रहा हूँ।’ 

अभिषेक भगवान की प्रतिमा पर चढ़ी धूल के प्रक्षालन के लिए नहीं बल्कि अपनी आत्मा पर चढ़ी रज के प्रक्षालन के लिए किया जाता है। इस भाव से अभिषेक करते हैं और अभिषेक करते रहना चाहिए। इसकी बड़ी प्राचीन परिपाटी है। अकृत्रिम जिनबिम्बों में भी भगवान का नित्य अभिषेक कर्म होता है। नंदीश्वर द्वीप का वर्णन करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि वहाँ अभिषेक होता ही है लेकिन यहाँ मन्दिर में अभिषेक प्रक्षनिका भी बनी हुई है, ऐसा स्थान बना हुआ है जहाँ खड़े होकर बाकी देव देवता भगवान का अभिषेक देखते हैं। तो ये अभिषेक की बहुत पुरानी परिपाटी है।

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