जो पुण्य की इच्छा करता है वह अज्ञानी है, मिथ्या दृष्टि है!

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शंका

सर्वज्ञ परिणीत ग्रंथो में आचार्यों ने पुण्य कर्म की विवेचना कुछ इस प्रकार की है, पुण्य कर्म को ज्ञान में ज्ञेय कहा, श्रद्धा में हेय कहा और क्रिया में परम उपादेय कहा तो श्रद्धा में हेय कैसे? आचार्य कुन्द कुन्द ने अपने समयसार ग्रन्थ में कहा कि “जो पुण्य की इच्छा करता है, वह मिथ्या दृष्टि है!” ऐसा क्यों ?

संजीव जैन, सांगानेर संस्थान

समाधान

यह शब्द तुम्हारे हैं, आचार्यों के नहीं। आचार्यों ने पुण्य के विषय में ऐसा कहीं नहीं कहा। आचार्य कुन्द कुन्द ने जो कहा कि, ‘जो पुण्य की इच्छा करता है वह अज्ञानी है, मिथ्या दृष्टि है’, वे अपनी जगह सही हैं, पर इसे समझो। इसे अगर मैं पूरी तरह से विवेचित करूँ तो आज का पूरा सत्र इसी में निकल जाएगा। इसको मैं कुछ कम शब्दों में बताता हूँ और तुम जैसे विद्वानों के लिए शायद इतना ही काफी होगा। 

चार बातें समझो और पुण्य-पाप के फ़ेर को समझ लेना। पुण्य-पाप कर्म, पुण्य-पाप बन्ध, पुण्य-पाप क्रिया और पुण्य-पाप फल। पुण्य-पाप कर्म सामान्य दृष्टि से दोनों समान हैं तो पुण्य और पाप कर्म को समान मानो। पुण्य-पाप का बन्ध हमारे हाथ में नहीं है। जैसे- जैसे साधक ऊपर जाता है, उत्तरोत्तर उसके गुण स्थान की विशुद्धता बढ़ती है और पुण्य की वृद्धि करता जाता है। निरन्तर पुण्य के बन्ध को सम्यक् दृष्टि नहीं रोक पाता। जबकि दसवें गुण स्थान के अन्त समय में साता वेदनीय, यश कीर्ति और उच्च गोत्र जैसे पुण्य प्रकृतियों का जब सर्वोत्कृष्ट बन्ध होता है तब कहीं कोई केवल ज्ञान प्राप्त कर पाता है। पुण्य-पाप की क्रिया कथनचित हेय और कथनचित उपादेय है। निचले भूमिका में जीने वाले लोग जो पाप से निवृत्त नहीं हो सके उनके लिए पुण्य की क्रिया उपादेय है और पाप की क्रिया हेय है। लेकिन जो आत्मा में लीन हो गए हैं उनके लिए दोनों समान हैं।

जिन पुण्य-पाप नहीं कीना, आतम अनुभव चित दीना, तिनहि विधि आवत रोके संवर लहि सुख अवलोके।

तो उस वीतराग की भूमिका के अपेक्षा बात करोगे जहाँ क्रिया नहीं निष्क्रिया है जहाँ प्रवृत्ति नहीं निवृत्ति है, वहाँ पुण्य और पाप समान है। लेकिन नीचे की भूमिका में गृहस्थ लोगों के लिए पुण्य की क्रिया ही उनका धर्म है। वही उसके लिए उपादेय है ऐसा आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा।

चौथी बात है- पुण्य- पाप फल। पुण्य और पाप के फल को हमेशा समान मानो। पुण्य के फल को अच्छा और पाप के फल को बुरा मानने वाला अज्ञानी है। ज्ञानी की दृष्टि में पुण्य और पाप दोनों समान हैं। पुण्य-पाप के फल को समान मानो। पुण्य-पाप की क्रिया में भूमिका अनुरूप काम करो। पुण्य-पाप बन्ध की प्रक्रिया चलती है, कर्म अपनी जगह है।

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